चेतावनी: कहानी का ये दृश्य संवेदनशील और विवादास्पद है। पाठक पढ़ते वक़्त विवेक का इस्तेमाल करे,
बारात अपने घर लौट आई थी। मेघा, हमारी नई भाभी, अब परिवार का हिस्सा थी। घर में खुशियों का माहौल था, लेकिन मेरे लिए उस खुशी के नीचे एक अजीब सी बेचैनी थी, जो कल रात से मेरे जिस्म में सुलग रही थी।
शादी की थकान अभी भी मेरे हड्डियों में बसी थी, लेकिन दिन में थोड़ी-बहुत नींद ने मुझे कुछ राहत दी थी। फिर भी, मेरा मन कहीं और था, जैसे कोई अधूरी बात मेरे सीने में अटकी हो।
मामी के प्रवचन के बाद भी मै संतुष्ट नहीं हो पा रहा था, मै अपनी माँ के इस रूप को समझ ही नहीं पा रहा था, बेचैनी बरकरार थी.
आज शाम को आस पड़ोस और करीबी मेहमानों के लिए एक छोटी सी दावत रखी गई थी। आंगन में रंग-बिरंगी लाइटें टिमटिमा रही थीं, टेबल पर पुकाव, पनीर, कबाब, और मिठाइयों की खुशबू हवा में तैर रही थी।
हल्की-हल्की म्यूजिक की धुन गूंज रही थी, और मेहमानों की हँसी-मजाक से आंगन भरा हुआ था।
मेरे सभी दोस्तों ने थकान उतारने का मस्त प्लान बनाया था आज दारू पार्टी की व्यवस्था कर ली थी हम लोगो ने, आज कोई काम नहीं था, मेहमानों से भरे घर मे सुकून के पल ढूढ रहे थे हम लोग, आज पार्टी मे नवीन और जीजा जी भी शामिल थे।
नवीन, नया दूल्हा होने के नाते, सबके मजाक का केंद्र था। मेरे दोस्त उसे छेड़ रहे थे—"क्या नवीन, सुहागरात का क्या सीन है? घर में इतनी भीड़ है कि बेचारी भाभी को तुझसे मिलने का मौका ही नहीं मिलेगा!" नवीन हँस रहा था, लेकिन उसकी आँखों में एक हल्की सी बेचैनी थी। बेचारा, नया दूल्हा, और अभी उसे अपनी दुल्हन के साथ अकेले में वक्त बिताने का मौका भी नहीं मिला था।
मामी, मौसी, और दीदी मेहमानों की खातिरदारी में व्यस्त थीं। मेरी माँ रेशमा, मेघा के साथ बैठी थीं, और उनके आसपास पड़ोस की औरतें थीं, जो हँसते-हँसते मेघा को नेग दे रही थीं। "अरे मेघा, तु तो बड़ी खूबसूरत है रे, तूने तो यहाँ आ कर हमारे मोहल्ले की शान बढ़ा दि,
"देखना दीदी नवीन तो इस पर लट्टू हो जायेगा " पास पड़ोस की औरते हसीं मज़ाक कर रही थी, नयी दुल्हन को छेड़ रही थी.
मेघा भाभी लाल लहंगे चुन्नी मे सर झुकाये मुस्कुरा रही थी, उसका कामुक गोरा जिस्म लाल जोडे मे खूब फल फूल रहा था, उसकी खूबसूरती छुपाये नहीं छुपाई जा सकती थी,
माँ भी सिर्फ हल्के से मुस्कुरा कर रह जा रही थी, माँ मेधा को बड़े ध्यान से देख रही थी जैसे अपनी शादी का दिन याद कर रही हो, माँ की आँखों की यर चमक अब मुझे चुभने लगी थी,
खेर मैंने छोटा मोटा नाश्ता उठाया और ऊपर कमरे मे चला गया, जहाँ महफिल जमीं हुई थी, मेरे दोस्त, भाई नवीन और जीजा जी ठहाके लगाते नवीन को छेड़ रहे थे.
"चखना लाने मे इतना वक़्त लगता है क्या भाई " जीजा जी चाहकते हुए बोले.
"बस जीजा जी भीड़ बहुत थी "
शराब का दौर शुरू हो चूका था हमारा
रात के 12 बज चुके थे। आंगन धीरे-धीरे खाली होने लगा था। मेरे दोस्त और नवीन अभी भी शराब के नशे में चूर थे, और जीजा जी उनके साथ ठहाके लगा रहे थे। मैं भी उनके साथ बैठा था, लेकिन मेरा मन कहीं और था।
मेरे दिमाग में कल रात के दृश्य बार-बार घूम रहे थे—माँ और पटनायक, मौसी और अब्दुल- आदिल , और फिर मामी के साथ मेरा अपना अनुभव। मेरे जिस्म में एक अजीब सी गर्मी थी, जो शराब के दो घूँट पीने के बाद भी शांत नहीं हो रही थी। जबकि शराब की गर्मी मेरे हिस्म मे घुल के मुझे और भी ज्यादा उत्तेजित कर रही थी.
"मैं आता हूँ, दोस्तों," मैंने कहा और अपनी सिगरेट की डिब्बी जेब में डालकर छत की ओर चल पड़ा। मुझे अकेले में कुछ पल चाहिए थे, ताकि मैं अपने दिमाग के तूफान को शांत कर सकूँ।
छत पर ठंडी हवा चल रही थी, और आसमान में तारे चमक रहे थे। मैंने सिगरेट जलाई और एक लंबा कश लिया। धुआँ हवा में उड़ रहा था, लेकिन मेरी बेचैनी कम नहीं हो रही थी। मेरे दिमाग में माँ की नंगी देह, उनकी सिसकारियाँ, और वो जंगलीपन बार-बार घूम रहा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी माँ, जो मेरे लिए हमेशा साड़ी में लिपटी, घर संभालने वाली औरत थी, इतनी हवस भरी हो सकती है।
इस शादी मे आने से पहले मेरी माँ सिर्फ मेरी माँ थी, लेकिन आज मै उसे एक औरत के नजरिये से देख रहा था.
तभी, पायल की छनछन की आवाज ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। मैंने पीछे मुड़कर देखा।
मेरी माँ रेशमा सामने खड़ी थीं। मै अचानक माँ को देख हक्का बक्का रह गया, मुझे अपनी सांसे अटकती सी महसूस होने लगी,
उनकी लाल साड़ी रात की चाँदनी में चमक रही थी, और उनका पल्लू हल्का-हल्का हवा में लहरा रहा था। उनकी गोरी त्वचा पर चाँद की रोशनी पड़ रही थी, और उनकी आँखों में वही चमक थी—वही चमक, जो मुझे कल रात से परेशान कर रही थी।
उनकी साड़ी उनकी नाभि के नीचे बंधी थी, और उनकी सुडौल कमर पर मेरी नजरें सरकती जा रही थी,
मेरी माँ किसी काम मूर्ति की तरह सामने खड़ी थी, किसी मूर्तिकार ने सिद्दत से तराशा हो जैसे.
उनकी लंबी, घनी चोटी कंधे पर लटक रही थी, और उनके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान थी, जो मेरे दिल को और बेचैन कर रही थी।
"अमित, इतनी रात को यहाँ क्या कर रहा है?" माँ की आवाज नरम थी, लेकिन उसमें एक गहराई थी, जैसे वो मेरी बेचैनी को पहले ही भाँप चुकी हों।
मैंने सिगरेट को रेलिंग पर दबाकर बुझा दिया और उनके चेहरे की ओर देखा। मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। मेरे दिमाग में फिर से वही सीन उभर आया—माँ की नंगी देह, पटनायक का मोटा लंड, और वो सिसकारियाँ। मेरी आँखें नीचे झुक गईं, और मैंने रेलिंग को कसकर पकड़ लिया। जैसे अपने अंदर उमड़ते जज़्बात को दबा रहा हूँ.
"क्या हुआ, बेटा? कुछ परेशान है?" माँ मेरे पास आईं और रेलिंग पर कोहनी टिका कर मेरे साइड खड़ी हो मेरे चेहरे को देखने लगी, उनकी खुशबू—चंदन और गुलाब की मिश्रित महक—मेरे नथुनों में घुस रही थी। मैंने उनकी ओर देखा। उनके चेहरे पर थकान थी, लेकिन उनकी आँखों में एक अजीब सी चाहत थी, ममता थी, लगता था जैसे वो सिर्फ मेरे लिए ही यहाँ आई है.
"माँ… मैं…वो... वो... मै...." मेरे शब्द अधूरे रह गए। मेरे दिमाग में एक तूफान सा उठ रहा था। मैं उन्हें बताना चाहता था कि मैंने उन्हें देखा है, उनका कामुक रूप, वो वहसी हवस भरा रूप देखा है मैंने, लेकिन मेरे होंठ काँप रहे थे।
माँ ने मेरी ओर देखा, उनकी आँखों में एक शरारती चमक थी, होंठो पर धीमी मुस्कान थी,
"अमित, मैं जानती हूँ कि तू मुझे छुप-छुप कर देखता है, मै तेरी व्यथा समझ रही हूँ बेटा, तु अपनी माँ के बारे मे क्या क्या सोच रहा होगा शायद इसका अंदाजा मै ना लगा सकूँ"
उन्होंने धीरे से कहा। उनकी आवाज में कोई गुस्सा नहीं था, बस एक अजीब सा खुलापन था, जैसे खुद ही अपना गुनाह कबूल करने आई हो.
मैं सन्न रह गया। मेरी साँस रुक गई, और मेरे चेहरे पर पसीना छलकने लगा। "माँ… आप… आप क्या कह रही हैं?" मेरी आवाज काँप रही थी।
माँ ने एक गहरी साँस ली और छत से दूर सामने अँधेरे की ओर देखने लगीं।
"तुझे क्या लगता है कि मैं नहीं जानती? तू मुझे तब से अजीब नजरों से दिल्ली रहा है जबसे मै नॉएडा तेरे पास आई थी,
तेरी नजरें… मुझे हर वक़्त महसूस होती है बेटा, मै कब तक तुझसे छुपी रह सकती हूँ, आखिर मै तेरी माँ ही, तेरी नजरों को पहचानती हूँ, अमित। लेकिन मैंने कभी कुछ नहीं कहा।
क्यूंकि मै ताज्जुब मे थी की तूने मुझे मेरी हरकतो पर कभी टोका नहीं, कभी रोका नहीं, तूने सब कुछ होने दिया, मैंने जो भी किया तु सिर्फ चुपचाप देखता रहा"
उनके शब्द मेरे सीने में चाकू की तरह चुभ रहे थे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि माँ मेरी उन नजरों को भाँप लेगी। मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी थी, लेकिन साथ ही एक अजीब सी राहत भी। जैसे कोई बोझ मेरे सीने से उतर रहा हो।
"माँ, मैं… मैंने कभी आपके बारे मे गलत नहीं सोचा," मैंने कहा, लेकिन मेरे शब्द खोखले लग रहे थे।
"मैं बस… मै खुद कुस्ज समझ नहीं पा रहा था आखिर आप ऐसा कर क्यों रही हो, आपका ये व्यवहार देख के मै हैरान था, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था.... आप दुखी है या खुश मुझे तो कुछ पता ही नहीं है,.
मैं बस आपको देखता रहा, जो होता गया उसे देखता रहा। आप हो ही इतनी खूबसूरत..… की मै खुद आप पर मोहित हो गया था, कई बार तो मैं… मैं खुद को कंट्रोल नहीं कर पाया था,
मै जाने क्या क्या बक गया मुझे खुद को कुछ नहीं पता था,
मेरे हाथ अपने पैंट के अगले हिस्से को दबाने लगे, जिसे माँ ने एक नजर देख भर मुस्करा दिया.
माँ ने मेरी ओर देखा, और उनकी आँखों में एक हल्की सी मुस्कान थी। "खूबसूरत?" उन्होंने कहा। "अमित, तू नहीं जानता कि ये खूबसूरती मेरे लिए कितनी बार सजा बनी है।"
वो रेलिंग पर टिकीं और सामने की रात में खो गईं।
उनकी आवाज में एक गहरा दर्द था, जैसे वो कोई पुराना घाव खोल रही हों।
"सात साल पहले… जब तेरे पापा का एक्सीडेंट हुआ था, तब से हमारी जिंदगी बदल गई। उनकी कमर के नीचे का हिस्सा… वो काम नहीं करता। डॉक्टरों ने कहा कि वो फिर कभी चल-फिर नहीं पाएँगे। मैंने उनकी खूब सेवा की, अमित। दिन-रात अस्पताल में रही, उनके लिए दवाइयाँ लाई, उनके जख्मों को साफ किया। जब वो घर आए, तो मैंने घर संभाला, खेत-खलिहान संभाला, तुम बच्चों को पाला। इस बीच तेरी दीदी को शादी भी की, लेकिन मैंने कभी कोई शिकायत नहीं की।"
मैं उनकी बातें सुन रहा था, और मेरे दिल में एक अजीब सा दर्द उठ रहा था। मैंने माँ को हमेशा एक मजबूत औरत के रूप में देखा था, लेकिन उनकी इस मजबूरी को मैंने कभी नहीं समझा था।
"लेकिन अमित," माँ ने अपनी आवाज को और गहरा करते हुए कहा,
"मै भी एक औरत ही हूँ, मेरे जिस्म में भी एक आग है, मेरी भी कुछ जरूरते है। हर रात, जब मैं अकेले बिस्तर पर लेटती थी, मेरी देह जलती थी। मेरी चूत में एक भूख थी, जो मुझे रात-रात भर सताती थी। लेकिन मैंने कभी उस भूख को बहार मुँह मारने नहीं दिया। मैंने कभी परिवार की इज्जत को दाँव पर नहीं लगाया।
गांव में बहुत से मर्द मेरे पीछे पागल है, मौका ढूंढ़ते है मुझे पाने का, मेरे साथ सोने का, मेरे बारे मे बाते बनाते है.
मैंने कभी खुद को भटकने नहीं दिया, इस आग को अंदर ही अंदर दबाये रखा, इतना दबाया की गलती से किसी मर्द का हाथ भी छू जाता तो मेरी चुत बहने लगती थी, मै मर्द की छुवन के लिए भी तरस गई थी अमित.
फिर भी मैंने कोई गलत कदम नहीं उठाया, कभी घर के बहार किसी मर्द को आंख उठा कर नहीं देखा, भूल गई थी मै अपनी जवानी को भी, मैंने अपनी आग को दबाया, अपने घर की खातिर, तुम बच्चों की खातिर।"
लेकिन मेरी यही गलती मुझ पर भरी पड़ी, ये वो आग है जिसे जितना दबाओ उतना भड़क उठती है, जिसता मसलो उतना तरसती है.
मेरी हालात धीरे धीरे पागलो जैसी होती जा रही थी, बात बात पर चिढ़ना गुस्सा करना मेरा स्वभाव बनता जा रहा था, तेरे पापा, गांव वाले सब मुझसे, मेरे गुस्से से डरने लगे थे.
उनकी आँखों में एक नमी थी, लेकिन उनकी आवाज में एक ताकत थी।
"फिर ये शादी आई। यहाँ, इस शहर में, मैंने पहली बार खुद को आजाद महसूस किया। मैंने महसूस किया मै पिंजरे मे रहने वाली चिड़िया नहीं हूँ, मेरी भी जिंदगी है, मेरे भी कुछ अरमान है, इच्छा है जिसे मै बर्बाद नहीं कर सकती.. और औरत का जिस्म होता ही ऐसा है अमित बेटा, इस उम्र मे वापस से जवानी उफान मारने लगती है.
रही सही कसर तेरे दोस्तों ने पूरी कर दि, पहले दिन से ही उन्होंने मुझे खूबसूरत होने का अहसास दिलाया, उनके लिए तो मै अप्सरा सी हूँ, ऐसा जिस्म उन्होने दिखा ही नहीं था.
ये सब मेरे लिए भी नया था, नये जवान लड़के एक अधेड उम्र की औरत पर मरे जा रहे थे, इस अहसास ने मेरे उठते यौवन को आग लगा दि, चुत ने बहते लावे को बहार निकलने पर मजबूर कर दिया.
उन्होंने मुझे एक औरत होने का अहसास कराया। उन्होंने मेरी उस आग को भड़काया, जो मैं सालों से दबा रही थी। और फिर… पटनायक… उसने मुझे वो सुख दिया, जिसके लिए मैं सालों से तरस रही थी। उसका तूफानी लंड… उसने मेरी चूत की आग को बुझा दिया, अमित। मैं तृप्त हो गई।"
मैं उनकी बातें सुन रहा था, मुँह बाये माँ की मज़बूरी को समझने की कोशिश कर रहा था, पटनायक का नाम आते ही मेरे दिमाग में कल रात का सीन फिर से उभर आया। "माँ, मैंने आपको देखा… कल रात… पटनायक के साथ," मैंने हिम्मत जुटाकर कहा। मेरी आवाज में एक कंपन था, लेकिन मैं अब चुप नहीं रह सकता था। "मैंने सब देखा… आपकी वो सिसकारियाँ… वो… वो सब।"
माँ की आँखें एक पल के लिए चौड़ी हुईं, लेकिन फिर वो शांत हो गईं। उन्होंने एक गहरी साँस ली और मेरे कंधे पर हाथ रखा। "जो तूने कल देखा वो एक प्यासी औरत का रूप है बेटा, वो तेरी माँ भी हो सकती है, तेरी बहन भी, मायने ये रखता है की वो औरत प्यासी है, ये आग औरत को इस हरकत के लिए मजबूर कर देती है उसका गुस्सा चुत के रास्ते बह के ऐसे ही निकलता है, तब जा कर कहीं शांत होती है औरते, लेकिन तुझे क्या लगता है, अमित? मैंने कुछ गलत किया?"
मैं चुप रहा। मेरे दिमाग में सवालों का तूफान था, लेकिन जवाब ढूंढने की हिम्मत नहीं थी। माँ ने मेरी ओर देखा, और उनकी आँखों में एक अजीब सी गहराई थी। "अमित, मैं एक औरत हूँ। मेरे जिस्म में भी वही आग जलती है, जो हर इंसान में जलती है। मै इज़्ज़त भी बनाये रखना चाहती थी, वो इज़्ज़त मुझे तेरे दोस्तों से मिली, पटनायक से मिली.. ना जाने कितनी औरते इसी इज़्ज़त को बचाये रखने मे पागल हो जाती है, मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, हर वक़्त गुस्सा चिड़चिड़ापान रहने लगता है.
लेकिन मे भाग्यशाली थी मुझे तेरे पास नोएडा आने का अवसर मिला, तेरे दोस्त मिले, पटनायक मिला, ये माहौल मिला.
मै खुद को जान पाई, खुद की खूबसूरती से परिचित हो सकी.
माँ के शब्द मेरे दिमाग में बिजली की तरह कौंध गए। मेरी माँ, जो मेरे लिए हमेशा साड़ी में लिपटी, घर संभालने वाली औरत थी, वो इतने खुले शब्दों में अपनी हवस की बात कर रही थी। मेरे जिस्म में एक गर्मी सी दौड़ गई, और मेरी पैंट में फिर से वही तनाव महसूस होने लगा।
"माँ, लेकिन… ये सब… ये सही है?" मैंने पूछा, मेरी आवाज में उलझन थी। "आप मेरी माँ हैं… और मैं… मैं आपको उस तरह से देख रहा हूँ… ये गलत नहीं है?"
माँ ने मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में लिया। उनकी हथेलियाँ गर्म थीं, और उनकी आँखों में एक ममता थी, जो मेरे दिल को छू रही थी।
"अमित, तू मेरा बेटा है, लेकिन तू भी तो एक मर्द है। और मैं… मैं तेरी माँ हूँ, लेकिन मैं एक औरत भी हूँ।
तभी तो तु मुझे छुप छुप कर देखता रहा, अपने दोस्तों से चुदते देखा, पटनायक से चुदते देखा, इतने ही रिश्ते का ख्याल था तो आया क्यों नहीं कभी बीच मै.
क्यूंकि तु भी मुझे देख के उत्तेजित हो जाता है, सही कहाँ ना..... माँ ने मेरे पैंट मे बने तम्बू की ओर देखते हुए कहाँ.इ
"अब... अअअ... अब... वो... माँ... मै... माँ.. " माँ की बातो का जवाब मेरे पास नहीं था, मै हकला कर रहा गया.
सच ये है की लंड चुत का कोई रिश्ता होता ही नहीं है, चुत मे लगी आग को सिर्फ लंड का पानी ही बुझा सकता है बाकि सब कहने की बाते है अमित, मै माँ हूँ ये हमारा सामजिक रिश्ता है, मेरी चुत देख के तेरा लंड खड़ा हो गया ये कामुकता का रिश्ता है.
माँ की बाते सुन मै हक्का बक्का रहा गया और जल्दी से अपने पैंट मे बने लंड को छुपाने की नाकाम कोशिश करने लगा.
"हाहाहाहा..... रहने दे बेटा, क्या मै नहीं जानती तुझे " माँ हसते हुए मेरे करीब आ गई.
उनके शब्द मेरे जिस्म में आग लगा रहे थे। वो मेरे इतने करीब थीं कि मैं उनकी साँसों की गर्मी महसूस कर रहा था। उनकी साड़ी का पल्लू हल्का-हल्का सरक गया, और उनके भरे हुए स्तन मेरे सामने थे। उनकी क्लीवेज में पसीने की बूँदें चमक रही थीं, और उनके निप्पल ब्लाउज के नीचे से उभर रहे थे। मेरे दिमाग में एक आवाज चीख रही थी कि ये गलत है, लेकिन मेरा जिस्म उस आवाज को दबा रहा था।
"माँ…" मैंने धीरे से कहा, लेकिन मेरे शब्द अधूरे रह गए। माँ ने मेरे होंठों पर अपनी उंगली रख दी। "श्श्श… चुप," उन्होंने कहा। "बस इसे मेरे हवाले कर दे, अमित।"
माँ ने मेरे उभर को अपने कोमल हाथो मे दबोच लिया "इसससससस...... आआहहहह.... माँ " मै सिसकर उठा ये जो हो रहा था मैंने कल्पना नहीं की थी.
माँ ने मेरे लंड को पैंट के ऊपर से ही मसल दिया, उनके चेहरे पर कामुकता दिख रही थी, आँखों मे हवस थी, वही हवस जो कल रात थी.
"अमित… तू मुझे पूरी तरह नंगा देखना चाहता है, ना?" माँ ने धीरे से कहा, उनकी आवाज में एक शरारती चमक थी। मैं सन्न रह गया। मेरे मुँह से शब्द नहीं निकले, लेकिन मेरी आँखें उनकी आँखों से मिलीं।
माँ के शब्द सुन मेरे लंड ने पैंट में और जोर से झटका मारा, जैसे वो मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहा हो।
माँ ने मेरी ओर देखा, और उनकी मुस्कान और गहरी हो गई। वो धीरे-धीरे पीछे हटीं, और उनकी उंगलियाँ उनकी साड़ी के पल्लू पर चली गईं।
"देख, अमित… अपनी माँ को देख, कब तक छुप छुप कर देखेगा, के आज सामने से देख" उनकी आवाज में एक मादकता थी, जो मेरे होश उड़ा रही थी।
उन्होंने धीरे-धीरे अपनी साड़ी का पल्लू नीचे खींचा।
लाल साड़ी धीरे-धीरे उनके कंधों से सरकने लगी, और उनकी गोरी, चिकनी त्वचा रात की चाँदनी में चमकने लगी। साड़ी की सिलवटें एक-एक करके खुल रही थीं, और हर सिलवट के साथ मेरा दिल और जोर से धड़क रहा था। पहले पल्लू पूरी तरह नीचे गिरा, माँ का ब्लाउज अब उनके भरे हुए स्तनों को कसकर पकड़े हुए था, लेकिन साड़ी का ऊपरी हिस्सा अब भी कंधों पर लटक रहा था। माँ ने अपनी उंगलियों से साड़ी के किनारे को पकड़ा, और धीरे-धीरे उसे ब्लाउज से अलग करने लगीं।
साड़ी का लाल रंग चाँदनी में लाल सागर की तरह लहरा रहा था, और हर लहर के साथ माँ का कंधा उजागर हो रहा था। माँ की गोरी त्वचा पर चाँद की रोशनी पड़ रही थी, जैसे कोई चाँदी का पर्दा खुल रहा हो।
मैं सांस लेना भूल गया था। माँ ने साड़ी को धीरे से ब्लाउज के हुक से अलग किया, और अब साड़ी उनके कंधों से पूरी तरह सरक गई, नीचे की ओर लुढ़कने लगी।
माँ ने अपनी कमर पर बंधी साड़ी के फोल्ड को हल्का सा ढीला किया, और साड़ी धीरे-धीरे उनके कूल्हों से सरकने लगी। हर फोल्ड के खुलने के साथ उनकी सुडौल कमर और नाभि का गहरा गड्ढा नजर आने लगा। साड़ी का लाल रंग उनके गोरे जिस्म पर कंट्रास्ट बना रहा था, और पसीने की बूँदें उनकी त्वचा पर मोतियों की तरह चमक रही थीं। माँ की नाभि के चारों ओर साड़ी की आखिरी सिलवट लिपटी हुई थी, और वो धीरे से अपनी उंगलियों से उसे खींच रही थीं।
साड़ी अब उनके कूल्हों पर अटक गई थी, माँ ने हल्का सा झटका दिया, और साड़ी धीरे-धीरे नीचे सरकने लगी।
उनकी जाँघें धीरे-धीरे पेटीकोट के महीन कपडे से झाँकने लगी। साड़ी अब उनके पैरों के पास पहुँच गई, और माँ ने एक पैर उठाकर उसे बाहर निकाल लिया। अब वो सिर्फ ब्लाउज और पेटीकोट में खड़ी थीं। उनका पेटीकोट उनकी नाभि के नीचे बंधा था, और उनकी सुडौल कमर रात की रोशनी में किसी मूर्ति की तरह चमक रही थी।
मैं अवाक् था। मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। माँ ने अपने ब्लाउज के हुक पर उंगलियाँ रखीं, और धीरे-धीरे एक-एक हुक खोलने लगीं। फट… फट… की हल्की आवाज के साथ पहला हुक खुला, और ब्लाउज का ऊपरी हिस्सा थोड़ा ढीला हो गया। माँ की क्लीवेज अब और गहरी हो गई, और पसीने की बूँदें उसके गड्ढे में जमा हो रही थीं। दूसरा हुक खुला, ब्लाउज का किनारा अलग होने लगा, और माँ के बाएं स्तन का साइड कर्व नजर आने लगा। तीसरा हुक—अब ब्लाउज पूरी तरह ढीला हो गया, और माँ ने कंधों से सरका दिया। उनके गोरे, भरे हुए स्तन मेरे सामने उजागर हो गए। माँ के निप्पल अतिउत्तेजना मे तने हुए थे, जैसे वो मेरे स्पर्श का इंतज़ार कर रहे हों। वे गुलाबी थे, लेकिन उत्तेजना से गहरे हो चुके थे, और उनके चारों ओर हल्के भूरे घेरे थे, जो उम्र की परिपक्वता दिखा रहे थे। माँ के स्तन भारी थे, गुरुत्वाकर्षण से थोड़े नीचे लटकते हुए, लेकिन फिर भी फर्म और उभार वाले। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी माँ का जिस्म इतना सुंदर, इतना कामुक हो सकता है। आज मै पहले बार मानके जिस्म को इतने करीब से देख रहा था, इस जिस्म की गर्मी को महसूस कर रहा था, मेरे लंड ने मेरी पैंट में ऐसा तनाव बनाया कि मुझे लगा वो फट जाएगा।
माँ ने अपने पेटीकोट का नाड़ा खींचा, और धीरे-धीरे वो भी नीचे सरक गया। नाड़ा खुलते ही पेटीकोट की गांठ ढीली हो गई, और वो माँ की कमर से सरकने लगा। माँ ने हल्का सा हाथ लगाया, और पेटीकोट धीरे-धीरे उनके कूल्हों से नीचे लुढ़कने लगा। उनकी जाँघें पूरी तरह नंगी हो गईं—गोरी, चिकनी, और हल्के पसीने से चमकती हुई। पेटीकोट अब उनके घुटनों पर पहुँच गया, और माँ ने एक पैर उठाकर उसे बाहर निकाल लिया। अब वो मेरे सामने पूरी तरह नंगी खड़ी थीं। उनका जिस्म रात की चाँदनी में चमक रहा था—उनके भरे हुए स्तन, उनकी सुडौल कमर, उनकी गोरी, चिकनी जाँघें, और उनकी चूत, जो पहले से ही गीली थी। उनकी भगनासा तनी हुई थी, और उनकी चूत की लकीर रात की रोशनी में चमक रही थी। मैंने इतने करीब से अपनी माँ के नंगे, कामुक जिस्म को कभी नहीं देखा था। मेरे दिमाग में एक तूफान सा उठ रहा था,
मेरे लंड ने मेरी पैंट में ऐसा तनाव बनाया कि मुझे लगा वो फट जाएगा।
माँ मेरे सामने पूरी तरह नंगी खड़ी थीं। उनका जिस्म रात की चाँदनी में चमक रहा था—उनके भरे हुए स्तन, उनकी सुडौल कमर, उनकी गोरी, चिकनी जाँघें, और उनकी चूत, जो पहले से ही गीली थी। उनकी भगनासा तनी हुई थी, और उनकी चूत की लकीर रात की रोशनी में चमक रही थी। मैंने इतने करीब से अपनी माँ के नंगे, कामुक जिस्म को कभी नहीं देखा था। मेरे दिमाग में एक तूफान सा उठ रहा था, और मेरा लंड फटने को तैयार था।
"क्या जिस्म है, माँ…" मैंने अनायास कहा, मेरी आवाज में एक काँप थी। "मैंने कभी नहीं सोचा था… आप इतनी सुंदर हो सकती हैं।"
माँ ने एक मादक मुस्कान दी। "अमित… ये जिस्म तेरा भी है," उन्होंने कहा। "तू इसी जिस्म से जन्मा है। लेकिन आज… आज तू इसे एक औरत के रूप में देख रहा है।"
ये तेरी जन्मस्थली है, देख इसे, माँ ने अपनी चुत की तरफ इशारा करते हुए कहाँ,
चुत क्या थी जांघो के बीच एक तिकोना हिस्सा था जिसकी सभी भुजाये बराबर थी, आज मैंने त्रिभुज की परिभाषा सीख ली थी.
स्कूल वाले ऐसे सिखाते तो क्या मै गणित मे कमजोर होता.
माँ धीरे कदमो से बड़ी मादकता के साथ मेरे पास आईं, उनके नंगे जिस्म की गर्मी मेरे चेहरे को छू रही थी। मैं अब और नहीं रुक सका। माँ का ये रूप मुझे मार डालता, माँ का नंगा जिस्म मेरी जान लेने पर आतुर था.
मैं उनके स्तनों पर टूट पड़ा।
मेरे होंठ उनके निप्पल पर टिक गए, और मैं उन्हें चूसने लगा, मै सालों बाद अपनी माँ का दूध पी रहा था ।
लप… लप… की आवाज के साथ मैं उनके निप्पल को चूस रहा था, लेकिन आज इसमे मादकता थी, दूध नहीं था, ममता नहीं थी.
उत्तेजना थी, उत्तेजना से माँ के निप्पल तने हुए थे, मेरी जीभ उनके गुलाबी निप्पलों पर गोल-गोल घूम रही थी।
"आह्ह… अमित… धीरे… उउउफ्…" माँ की सिसकारियाँ हवा में गूंज रही थीं।
मैंने उनके स्तनों को चूसना जारी रखा, और मेरे हाथ उनकी सुडौल कमर पर सरक रहे थे, मै उनके कामुक जिस्म को महसूस कर रहा था, उनकी त्वचा इतनी मुलायम थी कि मैं उसमें खो जाना चाहता था। मैंने उनके एक निप्पल को हल्का सा काटा, और उनकी कमर उछल पड़ी।
"आह्ह… अमित… और जोर से…" वो हाँफ रही थीं, और उनका जिस्म मेरे स्पर्श से सिहर रहा था। बार बार मेरे सर को अपने स्तनों पर दबा रही रही,
मै स्तन को चूसता चाटता नीचे फिसलता हुआ घुटनो के बल जा बैठा..
"सससन्नणीयफ्फ्फ्फफ्फ्फ़..... उउउफ्फ्फ... आअह्ह्ह.... मैंने कस के सांस अंदर खिंच की एक मादक गीली कैसेली सुगंध ने मेरे जिस्म जो सराबोर कर दिया.
मेरी माँ की चुत मेरी आँखों के सामने थी, कितना भाग्यशाली बेटा था मै की अपनी जन्मस्थाली को साक्षात् देख रहा था, उसकी खुसबू को महसूस कर रहा था।
माँ की चूत की मादक गंध ने मेरे होश उड़ा दिए।
मुझसे अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था मै अपनी जन्मस्थाली को चुम लेना चाहता था, शायद माँ भी यही चाहती थी, मैंने एक नजर सर उठा कर ऊपर देखा, माँ से मेरी नजरें मिली, उनकी आँखों मे मौन स्वस्कृति थी, माँ ने अपनी जांघो को हल्का सा फैला दिया, अपनी चुत पर हाथ फेर मुझे हरी झंडी दिखा दि.
मेरी जन्म स्थली का गुलाबी हिस्सा नजर आने लग,
"इससससस.... अब नहीं रुक सकता " मैंने अपनी जीभ माँ की चूत पर टिका दि और उसे चाटना शुरू कर दिया लप… लप… पच… पच… की आवाजें छत पर गूंजने लगीं। उनकी चूत का रस मेरे मुँह में घुल रहा था, और मैं हर बूँद को भूखे कुत्ते की तरह चाट रहा था।
उनकी भगनासा तनी हुई थी, और मैंने उसे अपनी जीभ से चूसा। "आह्ह… अमित… और गहरा… चाट!" माँ चिल्ला रही थीं, और वो मेरे सिर को अपनी चूत पर दबा रही थीं।
ऐसा सौभाग्य किस्मत वालो को ही नसीब होता है.
मैंने अपनी जीभ उनकी चूत की गहराइयों में डाली, और उनकी सिसकारियाँ और तेज हो गईं। मैंने उनकी भगनासा को हल्का सा काटा, और उनकी एक जोरदार सिसकारी निकल पड़ी—"आह्ह… उउउफ्… अमित!" मैंने चाटना जारी रखा, और उनकी चूत से निकलता रस मेरे चेहरे को भिगो रहा था।
मेरा लंड दर्द से फटा जा रहा था, अब इस लंड को सिर्फ माँ ही शांत कर सकती थी, मै उठ खड़ा हुआ.
शायद माँ भी मेरे इरादे भाँप गई थी.
माँ सामने रेलिंग पर झुक कर खड़ी हो गई, माँ की सुनहरी सुडोल गांड बहार को आ गई.. उउउफ्फ्फ.... क्या नजारा था, मेरी माँ सम्पूर्ण नंगी मेरे सामने अपनी गांड खोले झुकी हुई थी, मुझे देख मुस्कुरा रही थी.
उनकी चूत और गांड की लकीर रात की रोशनी में चमक रही थी। मै माँ की कामुक गांड को देख खुद को इसका स्वाद चखने से रोक ना सका,
मैंने अपना मुँह उनकी गांड और चूत की लकीर में घुसा दिया, और उनकी गांड के छेद को चाटने लगा,ना मेरी जीभ उनकी गांड की महीन लकीरो को कुरेद रही थी, इबारत लिख रही थी, उत्तेजना मे माँ की गांड खुल के बंद हो जाती, जितनी खुलती मै कोशिश करता की अंदर का रस चख लू,.
"आह्ह… अमित… वहाँ… उउउफ्…वहाँ नहीं.... आअह्ह्ह... अमित....माँ की सिसकारियाँ और तेज हो गईं। उनकी चूत का रस मेरे मुँह में बह रहा था, और मैं हर बूँद को चाट रहा था।
माँ अब बेकाबू हो चुकी थीं। उन्होंने मुझे खींचकर खड़ा किया और मेरे लंड को अपनी चूत पर टिकाया।
"अंदर डाल, अमित… चोद मुझे! अपनी माँ की चुत मे वापस जा " उनकी आवाज में एक जंगलीपन था, माँ उत्तेजना मे लाल हुए जा रही थी, मैंने अपना लंड उनकी चूत में धीरे-धीरे डाला, और पच… पच… की आवाज के साथ वो उनकी चूत की गहराइयों में समा गया।
मैंने धीरे-धीरे धक्के मारने शुरू किए, और माँ की सिसकारियाँ हवा में गूंजने लगीं—"आह्ह… और जोर से… अमित!"
मैंने उन्हें छत की रेलिंग पर झुका दिया और उनकी चूत में पीछे से धक्के मारने शुरू किए। थप… थप… फच… फच… की आवाजें तेज हो गईं। उनकी चूत मेरे लंड को निगल रही थी, और हर धक्के के साथ उनका जिस्म सिहर रहा था। मैंने उनके स्तनों को अपने हाथो से दबोच कस कस कर लंड चुत मे पेलने लगा, माँ की साँसें उखड़ रही थीं, और उनका चेहरा उत्तेजना से लाल हो गया था।
"आह्ह… अमित… और गहरा… फाड़ दे!" माँ चिल्ला रही थीं। उनकी चूत मेरे लंड को चिकना कर रही थी, और उनकी गांड मेरे धक्कों से थरथरा रही थी। कुछ ही पलों में माँ की चूत ने रस छोड़ दिया।
"आह्ह… अमित… मैं गई!" उनकी चीख के साथ उनका रस मेरे लंड को भिगो रहा था। मैं भी अपने चरम पर था। एक आखिरी धक्के के साथ मेरा गर्म वीर्य उनकी चूत में भर गया। "आह्ह…माँ मै गया, अपनी माँ की चुत मे मै झड़ गया माँ हमफ़्फ़्फ़... उउफ्फ्फ... हमफ़्फ़्फ़....हम दोनों की सिसकारियाँ एक साथ निकलीं।
सब कुछ शांत हो चूका था, तूफान आ कर निकल गया था,
लेकिन माँ की आँखों और जिस्म मे अभी भी हवस, उत्तेजना बाकि थी, माँ ने एक नजर मेरे लंड की तरफ देखा जो की मुरझा चूका था, माँ मेरी और देख के सिर्फ मुस्करा दि.
जैसे वो अभी और धक्के चाहती थी, औरत झड़ने मे बाद और उत्तेजित हो जाती है शायद उसका अंदाजा मैंने लगा किया था,
मै समझ गया था मेरे अंदर वो क्षमता नहीं है जो मेरी माँ जैसी औरत को संतुष्ट कर सके.
हम दोनों हाँफते हुए रेलिंग का सहारा लेकर बैठ गए। माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा, और उनकी साँसें मेरे चेहरे को छू रही थीं। छत का सन्नाटा अब हमारी साँसों से भर गया था।
"अमित," माँ ने धीरे से कहा।
"मैंने कहाँ था ना हम्मफ़्फ़्फ़... लंड चुत का कोई रिश्ता नहीं होता, चुत मे जब तक पानी है औरत जवान ही रही है, कुआँ खोदने वाला मजदूर थक जाता है, लेकिन कुंवे का पानी कभी खत्म नहीं होता " माँ मुस्कुरा दि.
इस मुस्कुराहट का मतलब मै समझ गया था, और अपनी औकात भी.
माँ ने मेरे सीने पर सर रख दिया, मेरा लंड पूरी तरह मुरझा कर 1इंच का ही बचा था, दिल और दिमाग़ भी अब मेरे लंड की तरह बिल्कुल शांत थे.
मै आज जीवन का वो पाठ सीख गया था, जिसे जन्मो जन्मो तक कोई नहीं समझ पाया, मै स्त्री होने का मतलब समझ गया था, मै स्त्री को समझ चूका था..
इस घटना के 2 दिन बाद हम लोग वापस नोएडा लौट गए, माँ भी एक रात हमारे साथ रुकी, और अगली सुबह गांव के लिए निकल गई. जिस रात रुकी उस दिन मैंने सोने का नाटक किया.
उस रात अब्दुल, आदिल, मोहित, प्रवीण चारो ने मेरी माँ को पूरी रात चोदा, हर जगह कस कस कर.
मै माँ को पहले की तरह देखता ही रहा.
लेकिन इस बार अंतर ये था की मै अब माँ को समझ गया था, माँ के लिए मेरे मन मे कोई बुरी भावना नहीं थी.
माँ और मेरे दोस्त बहुत दुखी थे साले हरामी.
लेकिन माँ कह गई थी, " अमित की शादी मे आना तुम सब "
असल मे बात ये थी की मै भी माँ के साथ ही गांव जा रहा था, मामा जी ने कोई रिश्ता बताया था, इन दो दिनों मे वही लोग आ रहे थे मुझे देखने, इसी बहाने मुझे माँ के साथ समय बिताने का मौका भी नील रहा था.
कककककउउउउउम...... छुक.... छुक.... छूकककक...... माँ की ट्रैन चली जा रही थी.
मेरे सभी दोस्त आँखों मे आंसू लिए माँ को देखे जा रहे थे.
मै भी माँ के साथ गांव जा रहा रहा, इस सफर ने मुझे माँ के अकेलेपन को समझा दिया था, हम बच्चे अपनी जिंदगी मे माँ बाप को भूल जाते है.
हालांकि मै माँ को छोड़ने ही जा रहा रहा, सप्ताह भर मे वापस आ जाना था,
ये सफर मुझे बहुत कुछ सीखा गया....
अब अगला सफर मुझे क्या क्या दिखायेगा ये तो लेखक ही जाने.
समाप्त.....
One last dance...
Contd.....
1 Comments
Finally a great journey comes to an end. What a ride it was. You should have shown us the Reshma with all four boys with similar energy. But we appreciate your decision.
ReplyDeleteIt was a great ride with Reshma & all others. Will wait for more from the writer.
Keep up the good work, keep writing.