अपडेट -3
आप कुच्छ कह रहे थे डॉक्टर. ?" डॉक्टर. ऋषभ के चुप होते ही विजय ने उसे टोका.
"ह .. हां" जैसे कोई डरावना सपना टूटा हो, गहरी निद्रा से आकस्मात ही यथार्थ में लौटने के उपरांत ड्र. ऋषभ हड़बड़ा सा जाता है.
"वो .. वो मैं यह कह रहा था, विजय जी! एक ब्रॅंडेड लूब्रिकॅंट ट्यूब सजेस्ट कर रहा हूँ. अनल सेक्स स्टार्ट करने से पहले अपना टूल उससे पोलिश कर लिया करें ताकि इंटरकोर्स के दौरान अनचाहा फ्रिक्षन रेड्यूज़ हो सके और स्लिप्पेरिनेस्स भी बरकरार रहे" वह दवाइयों के पर्चे पर लूब्रिकॅंट का नाम लिखते हुवे बोला. अपनी मा की ताका-झाँकी के भय से उसके अशील अल्फ़ाज़, चेहरे के बे-ढांगे भाव और लंड का तनाव इत्यादि सभी विकार तीव्रता से सुधार में परिवर्तित हो चले थे.
"यह अँग्रेज़ी में क्या खुसुर-फुसुर चल रही है ड्र. साहेब ? मुझे कुच्छ समझ नही आया" रीमा ने पुछा, अब वह अनपढ़ थी तो इसमें उसकी क्या ग़लती.
विजय: "अरी भाग्यवान! ड्र. ऋषभ ...."
"तुम चुप रहो जी! हमेशा चपर-चपर करते रहते हो. तो डॉक्टर. साहेब! क्या कह रहे थे आप ?" अपने पति का मूँह बंद करवाने के पश्चात रीमा ड्र. ऋषभ से सवाल करती है, अपने पुत्र-तुल्य प्रेमी के ऊपर तो अब वह अपनी जान भी न्योछावर करने से नही चूकती.
"कुच्छ ख़ास नही रीमा जी" ड्र. ऋषभ ने सोचा कि अब जल्द से जल्द उन दोनो को क्लिनिक का दरवाज़ा दिखा देना चाहिए ताकि अन्य कोई ड्रामा उत्पन्न ना हो सके. तत-पश्चात दोबारा उसने अपनी निगाहें बंद कंप्यूटर की स्क्रीन से जोड़ दी मगर इस बार उसे विज़िटर'स रूम की खिड़की पर कोई आक्रति नज़र नही आती.
"मैं इतनी भी गँवार नही ड्र. साहेब! आप ने अभी सेक्स, पोलाइस और लू .. लू .. लुबी, हां! ऐसा ही कुच्छ बोला था" रीमा ने नखरीले अंदाज़ में कहा. अब कोई कितना भी अनपढ़ क्यों ना सही 'सेक्स' शब्द का अर्थ तो वर्तमान में लगभग सभी को पता होता है. हां! जितना वह नही समझ पाई थी उतने का क्लू देने का प्रयत्न उसने ज़रूर किया.
"वो! रीमा जी" अब तक ड्र. ऋषभ के मन में उसकी मा का डर व्याप्त था, हलाकी ममता अब खिड़की से हट चुकी थी मगर फिर भी वह फालतू का रिस्क लेना उचित नही समझता.
"मैने विजय जी को सब बता दिया है, घर जा कर आप इन्ही से पुछ लीजिएगा" उसने पिच्छा छुड़ाने से उद्देश्य से कहा और दवाइयों का पर्चा विजय के हवाले कर देता है.
"हम चलते हैं डॉक्टर.! आप की फीस ?" विजय ने अपनी शर्ट की पॉकेट में हाथ डालते हुवे पुछा मगर रीमा का दिल उदासी से भर उठता है. वह कुच्छ और वक़्त ड्र. ऋषभ के साथ बिताना चाहती थी, फीस के आदान-प्रदान के उपरांत तो उन्हें क्लिनिक से बाहर जाना ही पड़ता.
"नही विजय जी! रीमा जी का रोग ठीक होने के बाद मैं खुद आप से फीस माँग लूँगा" ड्र. ऋषभ की बात सुन कर जहाँ विजय उसकी ईमानदारी पर अचंभित हुवा, वहीं रीमा के तंन की आग अचानक भड़क उठती है.
"ड्र. साहेब! कभी हमारे घर पर आएँ और हमे भी आप की खातिरदारी करने का मौका दें" रीमा फॉरन बोली, उसके द्वि-अर्थी कथन का मतलब समझना ड्र. ऋषभ के लिए मामूली सी बात थी परंतु जवाब में वह सिर्फ़ मुस्कुरा देता है.
"हां... मेरा नंबर और अड्रेस मैं यहाँ लिख देता हूँ, आप हमारे ग़रीब-खाने में पधारेंगी तो हमे बहुत खुशी होगी" सारी डीटेल'स टेबल पर रखे नोट पॅड में लिखने के उपरांत दोनो पति-पत्नी अपनी कुर्सियों से उठ कर खड़े हो गये. रीमा ने अपने पति के पलटने का इंतज़ार किया और तत-पश्चात अपनी सारी, पेटिकोट समेत पकड़ कर उसके खुरदुरे कपड़े को अपनी चूत के मुहाने पर ठीक वैसे ही रगड़ना शुरू कर देती है जैसे पेशाब करने के पश्चात अमूमन कयि भारतीय औरतें अपनी चूत के बाहरी गीलेपन्न को पोंच्छ कर सॉफ करती हैं.
"क्या हुवा रीमा ? अब चलो भी" अपनी पत्नी को नदारद पा कर विजय ने पुछा.
"तुमने तो अपनी बीवी को इतने जवान ड्र. साहेब के सामने नंगी हो जाने पर विवश कर दिया, अब क्या साड़ी की हालत भी ना सुधारू ?" रीमा, ड्र. ऋषभ की आँखों में झाँकते हुवे बोली और कुच्छ देर तक अपनी साड़ी की अस्त-व्यस्त हालत को सुधारने के बहाने अपनी चूत को रगड़ती ही रहती है. कॅबिन के दरवाज़े पर खड़े, उसकी प्रतीक्षा करते विजय का तो अब नाम मात्र का भी भय उसके चेहरे पर नज़र नही आ रहा था.
"घर ज़रूर आईएगा ड्र. साहेब! अच्छा! तो अब मैं चलती हूँ" अंत-तह कॅबिन के भीतर मौजूद उन दोनो मर्दो पर भिन्न-भिन्न रूप के कहेर ढाने के उपरांत अन-मने मन से रीमा को विदाई लेनी पड़ती है, ड्र. ऋषभ के साथ ही विजय के चेहरे पर भी सुकून के भाव सॉफ देखे जा सकते थे.
--------------
"उफफफ्फ़" अपनी टाइ की बेहद कसी नाट ढीली करने के बाद ऋषभ कुच्छ लम्हो तक लंबी-लंबी साँसें भरने लगा जो की मानसिक तनाव दूर करने में चिकित्सको का प्रमुख सहायक माध्यम होता है.
"कुच्छ देर और अगर यह औरत यहाँ रहती तो शायद मैं इस दुनिया से रुखसत हो जाता, आई थी अपनी गांद सिलवाने मगर फाड़ कर चली गयी मेरी" उसने मन ही मन सोचा, चुस्त फ्रेंची की जाकड़ में क़ैद उसका लंड अब भी ऐंठा हुवा था. मेज़ पर स्थापित घड़ी में वक़्त का अंदाज़ा लगा कर उसने जाना कि उसकी मा पिच्छले आधे घंटे से विज़िटर'स रूम के अंदर बैठी उसके फ्री होने का इंतज़ार कर रही थी.
"हेलो मा! कॅबिन में आ जाओ, मैं अब बिल्कुल फ्री हो चुका हूँ
ममता! एक सभ्य, सुसंस्कृत, महत्वाकांक्षी भारतीय नारी. जितनी कुशल ग्रहणी उससे कहीं ज़्यादा सफल व्यावसायिक महिला, अपने पति की अभिन्न प्रेमिका तो अपने इक-लौते पुत्र की आदर्श. विगत 2 महीने पहले ही उसने उमर के चौथे पड़ाव को छुआ था. स्नातक की पढ़ाई के दौरान प्रेम-विवाह और उसके ठीक एक साल बाद मा बनने का सौभाग्य. कुल मिला कर उसका रहेन-सहेन बेहद सरल व सादा था.
.
राजेश उसी विश्विधयालय में प्राध्यापक की हैसियत से कार्य-रत था जो अपनी ही विद्यार्थी ममता से प्रेम कर बैठता है, परिजनो के दर्ज़नो हस्तक्षेप, अनगिनती दबाव के बावजूद उसने उससे विवाह रचाया और जिसके नतीजन ममता के शिक्षण के दौरान ही ऋषभ के रूप उसे में पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गयी थी. बच्चे की अच्छी परवरिश के खातिर ममता के पढ़ाई छोड़ देने के फ़ैसले पर राजेश कतयि राज़ी नही होता और बीकॉम के उपरांत उसने अपनी पत्नी को एमकॉम भी करवाया. उस पुराने दौर में उतनी शिक्षा एक उच्च कोटि की नौकरी प्राप्त करने हेतु काफ़ी मानी जाती थी, शुरूवात प्राथमिक शाला में अधयापिका के पद पर की और तट-पश्चात एमबीए की उपाधि अर्जित करने के उपरांत आज वह एक मशहूर मल्टिनॅशनल कॉर्पोरेशन में मुख्य एचआर की भूमिका का सफलता-पूर्वक निर्वाह कर रही थी. स्वयं राजेश भी अब अपने सह-क्षेत्र का एचओडी बन चुका था.
.
राजेश और ममता का आपसी संबंध चाहे मानसिक हो या शारीरिक, बेहद नपा तुला रहा था. दोनो विश्वास की नज़र ना आने वाली किंतु अत्यंत मजबूत डोर से बँधे हुवे थे. ममता अक्सर टूर'स पर जाती, उसके कयि पुरुष संग-साथी थे, दिन भर दफ़्तर में व्यस्त रहना और घर लौटने के पश्चात भी वह मोबाइल या लॅपटॉप में उलझी रहती मगर राजेश ने कभी उसके काम या व्यस्तता आदि में कोई दखल-अंदाज़ी नही की थी बल्कि कुच्छ वक़्त पिछे तक तो वह खुद अपनी पत्नी के लिए खाने-पीने का इंतज़ाम करता रहा था, उसे कोई आपत्ति नही थी की ममता का पद और उसकी तनख़्वा उससे कहीं ज़्यादा है परंतु वर्तमान में तो जैसे सब कुच्छ बदल चुका था. अस्थमा की चपेट ने राजेश को मंन ही मंन खोखला नही किया अपितु शारीरिक क्षमता से भी अपंग कर दिया था. पुराने दौर में तो वे दोनो लगभग रोज़ाना ही चुदाई किया करते थे परंतु अब तो मानो साप्ताह के साप्ताह बीत जाने पर भी नाम मात्र की अतरंगता संभव नही हो पाती थी.
.
ममता साधारण समय में बहुत संकोची लेकिन चुदाई के दौरान उसकी उत्तेजना कयि गुना ज़्यादा बढ़ जाया करती थी. खुद राजेश भी कभी-कभी उसके कामुक स्वाभाव से घबरा सा जाता था, जैसे-जैसे ममता की उमर ढल रही थी उसकी काम-पिपासा दुगुनी गति से बढ़ रही थी. अब तो हालात इतने बदतर हो चले थे कि वह चाह कर भी अपनी कामोत्तजना पर काबू नही रख पा रही थी. कयि दिनो से निरंतर उसकी चूत से गाढ़े द्रव्य का अनियंत्रित रिसाव ज़ारी था मगर बिना पुरुष सहयोग के उसका खुल कर झाड़ पाना कतयि संभव नही हो पाता. प्रचूर मात्रा में रिसाव होने के प्रभाव से उसके सम्पूर्न जिस्म में हमेशा ही दर्द बना रहता था और सदैव इन्ही विचारों में मगन उसका मश्तिश्क उसकी पीड़ा को समाप्त होने में लगातार बाधा उत्पन्न कर रहा था.
-------------
"मे आइ गेट इन डॉक्टर. ?" ममता ने कॅबिन के दरवाज़े को खोलते हुवे पुछा, हमेशा की तरह उसके चेहरे पर शर्मीली सी मुस्कान व्याप्त थी परंतु अब उसके साथ दिखावट नामक शब्द का जुड़ाव हो चुका था.
"हां मा! अंदर आ जाओ, तुम्हे मेरी इजाज़त लेने कोई ज़रूरत नही" जवाब में ऋषभ को भी मुस्कुराना पड़ा मगर अपने लंड की ऐंठन से भरपूर स्थिति का ख़याल कर वह कुर्सी से उठ कर अपनी मा का स्वागत करने का साहस नही जुटा पाता बस इशारे मात्र से ममता को सामने स्थापित कुर्सी ऑफर करने भर से उसे संतोष करना पड़ता है.
"क्या बात है रेशू! तू कुच्छ परेशान सा दिख रहा है" ममता बोली और तत-पश्चात कुर्सी पर बैठ जाती है, अभी वह बिल्कुल अंजान थी कि उसका कॅबिन के भीतर ताक-झाँक करने वाला रहस्य उसके पुत्र पर उजागर हो चुका है और उसी भेद के प्रभाव से वह इतना चिंतित है.
"नही! नही तो मा" ऋषभ ने अपना थूक निगलते हुवे कहा, उसका मश्तिश्क इस बात को कतयि स्वीकार नही का पा रहा था कि कुच्छ देर पहले उसकी सग़ी मा ने उसे अपने ही समान अधेड़ उमर की औरत की गान्ड में उंगली पेलते देखा था. ममता के चेहरे के भाव सामान्य होने की वजह से वह निश्चित तौर पर तो नही जानता था कि उसकी मा ने उस अश्लील घटना-क्रम से संबंधित क्या-क्या देखा परंतु संदेह काफ़ी था कि उसने कुच्छ ना कुच्छ तो अवश्य ही देखा होगा.
"क्या वाकाई ?" ममता ने प्रश्नवाचक निगाओं से उसे घूरा. "इस ए/सी के ठंडक भरे वातावरण में भी तुझे पसीना क्यों आ रहा है ?" वह पुनः सवाल करती है.
कुच्छ वक़्त पूर्व क्लिनिक में गूंजने वाली रीमा की चीख उसके कानो से भी टकराई थी और ना चाहते हुवे भी उसके कदम विजिटर'स रूम की खिड़की तक घिसटते आए थे. माना दूसरो के काम में टाँग अड़ाना उसे शुरूवात से ही ना-पसंद रहा था परंतु अचानक से बढ़े कौतूहल के चलते विवश वह खिड़की से कॅबिन के भीतर झाँकने से खुद को रोक नही पाई थी और जो भयावह द्रश्य उस वक़्त उसकी आँखों ने देखा, विश्वास से परे कि उसकी खुद की गान्ड के छेद में शिहरन की कपकपि लहर दौड़ने लगी थी.
Contd...
0 Comments