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माँ का इलाज -4

अपडेट -4


वो! हां! आज ए/सी ठीक से काम नही कर रहा शायद" ऋषभ ने झूट बोलने का प्रयत्न किया जबकि कॅबिन के भीतर व्याप्त शीतलता भौतिकता-वादी संसार से कहीं दूर वर्फ़ समान नैसर्गिक आनंद का एहसास करवा रही थी.

"कहीं मा को मेरी उत्तेजना का भान तो नही ?" खुद के ही प्रश्न पर मानो वा हड़बड़ा सा जाता है और भूल-वश अपनी टाइ को रूमाल समझ चेहरे पर निरंतर बहते पसीने को पोंच्छना आरंभ कर देता है.

"पागल लड़के" ममता ने प्रेम्स्वरूप उसे ताना जड़ा और फॉरन अपना पर्स खंगालने लगती है.

"यह ले रूमाल! टाइ खराब मत कर" वह मुस्कुराइ और अपना अत्यंत गोरी रंगत का दाहिना हाथ अपने पुत्र के मुख मंडल के समक्ष आगे बढ़ा देती है, पतली रोम-रहित कलाई पर सू-सज्जित काँच की आधा दर्ज़न चूड़ियों की खनक के मधुर संगीत से ऋषभ का ध्यान आकस्मात ही ममता की उंगलियो पर केंद्रित हो गया और तुरंत ही वह उनकी पकड़ में क़ैद गुलाबी रूमाल को अपने हाथ में खींच लेता है.

"थॅंक्स मा! शायद मैं अपना रूमाल घर पर ही भूल आया हूँ" उसने ममता के रूमाल को अपने चेहरे से सटाया और अती-शीघ्र एक चिर-परिचित ऐसी मनभावन सुगंध से उसका सामना होता है जिसको शब्दो में बयान कर पाना उसके बस में नही था.

औरतें अक्सर अपने रूमाल को या तो अपने हाथ के पंजों में जकड़े रहती हैं ताकि निश्चित अंतराल के उपरांत अपने चेहरे की सुंदरता को बरकरार रख सकें या फिर आज की पाश्‍चात सन्स्क्रति के मुताबिक उसे कमर पर लिपटी अपनी साड़ी व पेटिकोट के मध्य लटका लेती है या जिन औरतों को पर्स रखना नही सुहाता वे अमूमन उसे अपने ब्लाउस के भीतर कसे अपने गोल मटोल मम्मो के दरमियाँ ठूँसे रहती हैं और इन तीनो ही स्थितियों में उनके पसीने की गंध उसके रूमाल में घुल जाती है.

"तेरा क्लिनिक तो वाकाई बदल गया रेशू! तू इसी तरह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता रहे मेरी कामना है बेटे" ममता की ममतामयी आँखों में हर उस मा सम्तुल्य खुशी का संचार होता नज़र आया जो अपने पुत्र की कामयाबी पर फूली नही समाती. हलाकी कॅबिन की दीवारो पर चहु ऑर तंगी, ख़ास नारी जात के गुप्तांगो व चुदाई के दौरान के अधिकांश आसान जो वर्तमान में प्रचिलित हैं उन्हे प्रदर्शित करती भिन्न-भिन्न तरह की रंगीन तस्वीरें देखने की उसकी इक्षा उतनी प्रबल तो नही थी मगर फिर भी कभी-कभार छुप-छुपा कर वह अपनी तिर्छि निगाह क्रम-अनुसार एक के बाद एक उन तस्वीरो के ऊपर अवश्य डालती रही. कुच्छ देर से सही परंतु उसकी आँखें एक ऐसी विशेष तस्वीर से चिपकी रह जाती हैं जो यक़ीनन उसे उसके ही रोग से संबंधित मालूम पड़ रही थी.

"ह्म्‍म्म! काश पापा भी इसे समझ पाते मा" ऋषभ हौले से फुसफुसाया मगर जाने क्यों अल्प समय में ही उसे उसकी मा के रूमाल से कुच्छ ज़्यादा ही लगाव हो गया था और प्रत्यक्ष-रूप से जानते हुवे कि उसकी मा ठीक उसके सामने की कुर्सी पर विराजमान है, वह अनेकों बार उस रूमाल में सिमटी मंत्रमुग्ध कर देने वाली गंध को महसूस करता रहा जो उन मा-बेटे के दरमियाँ मर्यादा, सम्मान इत्यादि बन्धनो की वजह से आज तक महसूस नही कर पाया था.

एक प्रमुख कारण यह भी था कि वर्तमान से पहले उसकी मा ने कभी उसके क्लिनिक का रुख़ नही किया और ममता के आकस्मात ही वहाँ पहुँच जाने से ऋषभ के मश्तिश्क में अब अजीबो-ग़रीब प्रश्न उठने लगे थे, एक द्वन्द्व सा चल रहा था. किसी भी तथ्य का बारीकी से आंकलन करना बुरी आदत नही मानी जा सकती परंतु उसके विचार अब धीरे-धीरे नकारात्मकता की ओर अग्रसर होते जा रहे थे.

"वे भी तुझे बहुत प्यार करते हैं रेशू! हां! बस तेरे करियर के चुनाव की वजह से थोड़ा नाराज़ ज़रूर रहते हैं लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम दोनो के बीच का मूक-युद्ध अब कुच्छ ही दिनो का मेहमान शेष है तो क्यों ना आज से ही डिन्नर हम तीनो एक साथ करने की नयी शुरूवात करें ?" ममता ने उस विशेष तस्वीर के ऊपर से अपनी नज़र हटा कर कहा और वापस ऋषभ के चेहरे पर गौर फरमाती है. उसका रूमाल उसके पुत्र की नाक के आस-पास मंडरा रहा था, बार-बार वह गहरी साँसें लेने लगता मानो पति राजेश की तरह वह भी अस्थमा का शिकार हो गया हो. जिन बुरे हलातो से ममता अभी गुज़र रही थी उनमें उसे एक और संदेह जुड़ता नज़र आने लगा था. उसे पूरा यकीन था कि आज से पहले उसका कोई भी वस्त्र ऋषभ के इतने करीब नही आ पाया था क्यों कि उसने खुद ही एक निश्चित उमर के बाद अपने पुत्र के शारीरिक संपर्क में आना छोड़ दिया था.

"तुम्हारे बदन की खुश्बू बेहद मादक है ममता" राजेश के अलावा उसकी कयि सहेलियों ने दर्ज़नो बार उसे छेड़ा था और हर बार वह शरम से पानी-पानी हो जाया करती थी. थी तो मात्र यह एक प्रसंशा ही मगर परिणाम-स्वरूप सीधे उसकी चूत की गहराई पर चोट कर जाया करती थी और शायद उस वक़्त ऋषभ की हरक़त भी उसे उसी बात का स्पष्टीकरण करती नज़र आ रही थी.

"ऐसा क्या है इस रूमाल में जो तू इतनी तेज़-तेज़ साँसे ले रहा है ?" ममता से सबर नही हो पाता और वह फॉरन पुछ बैठी, तारीफ़ के दो लफ्ज़ तो जहाँ से भी मिलें अर्जित कर लेना चाहिए, फिर थी तो वह एक स्त्री ही और जल्द ही उसे उसके पुत्र का थरथराते स्वर में जवाब भी मिल जाता है.

"तू .. तुम्हारी खुश्बू मा! बहुत बहुत अच्छी है"


हां मा! हमे अपने शरीर का ख़ासा ख़याल रखना चाहिए और तुम्हारा यह नया सेंट तो कमाल का है" ऋषभ ने चन्द गहरी साँसे और ली, तत-पश्चाताप ममता के रूमाल को मेज़ पर रख देता है. अपनी मा की आनंदमाई जिस्मानी सुगंध के तीक्षण प्रवाह के अनियंत्रित बहाव में बह कर भूल-वश उसके मूँह से सत्यता बाहर निकल आई थी परंतु जितनी तीव्रता से वह बहका था उससे कहीं ज़्यादा गति से उसने वापस भी खुद पर काबू पा लिया था.

"अगर एक यौन चिकित्सक ही सैयम, सैयत आदि शब्दो का अर्थ भूल जाए तो क्या खाक वह अपने मरीज़ो का इलाज कर पाएगा ?

ममता अपने पुत्र के पहले प्रत्याशित और फिर अप्रत्याशित कथन पर आश्चर्य-चकित रह जाती है. वह जो कुच्छ सुनने की इच्छुक थी अंजाने में ही सही मगर ऋषभ ने उसकी मननवांच्छित अभिलाषा को पूर्न आवश्या किया था, बस टीस इस बात की रही कि उसके पुत्र ने महज एक साधारण सेंट की संगया दे कर विषय की रोचकता को पल भर में समाप्त कर दिया था.

"बिल्कुल रेशू! मैने कल ही खरीदा था और आज तूने तारीफ़ भी कर दी" ममता ने मुस्कुराने का ढोंग करते हुवे कहा.

"अब मैने झूट क्यों बोला ? भला इंसानी गंध कैसे किसी सेंट समान हो सकती है ? आख़िर क्यों मैं अपने ही बेटे द्वारा प्रशन्षा प्राप्त करने को इतनी व्याकुल हूँ ? क्या रेशू भी अपनी मा के बारे में ही सोच रहा है ?" वह खुद से सवाल करती है और जिसका जवाब ढूँढ पाना उसके लिए कतयि संभव नही था.

"ह्म्‍म्म मा! जो वास्तु वाकाई तारीफ-ए-काबिल हो अपने आप उसके प्रशानशक उस तक पहुँच जाते हैं" प्रत्युत्तर में ऋषभ भी मुस्कुरा दिया. परिस्थिति, संबंध, मर्यादा, लाज का बाधित बंधन था वरना वा कभी अपनी मा से असत्य वचन नही बोलता. यह प्रथम अवसर था जो उसे ममता को इतने करीब से समझने का मौका मिला था, अमूमन तो दोनो सिर्फ़ अपने-अपने कामो में ही व्यस्त रहा करते थे.

मनुष्यों की उत्तेजना को चरमोत्कर्ष के शिखर पर पहुँचाने में लार, थूक, स्पर्श, गंध, पीड़ा इत्यादि के अलावा और भी काई ऐसे एहसास होते हैं जो दिखाई तो नही देते परंतु महसूस ज़रूर किए जाते हैं और उन्ही कुच्छ विशेष एहसासो का परिणाम था जो धीरे-धीरे वे मा-बेटे अब एक-दूसरे के विषय में विचार-मग्न होते जा रहे थे.

"देख ना रेशू! तुझे वापस पसीना आने लगा है, कहीं तू मुझसे कुच्छ छुपा तो नही रहा ना ? कुच्छ ऐसा जिसे तू अपनी मा के समक्ष बताने से झिझक रहा हो" ममता का आंदोलित मन नही माना और इस बार वह जान-बूच्छ कर ऋषभ को विवश करती है कि वा दोबारा से उसके रूमाल को सूँघे, किसी सभ्य भारतीय नारी में अचानक इतना परिवर्तन कैसे आ सकता है गंभीरता-पूर्वक विचारने योग्य बात थी.

"उम्म्म" ऋषभ भी उसे निराश नही करता और उसके रूमाल को पुनः अपने नाथुओं से सटा कर लंबी-लंबी साँसे अंदर खींचने लगता है. ममता से आँख चुराने का तो सवाल ही पैदा नही होता, यक़ीनन उसकी मा के जिस्म की गंध अन्य औरतों से अपेक्षाक्रत ज़्यादा मादक थी और जिसके प्रभाव से जल्द ही उसकी पलकें भारी हो कर बंद होने की कगार पर पहुँचने लगती है.

कौतूहल चंचल अश्व समान होता है, विचारों की वल्गा चाहे जितनी भी ज़ोर से तानो लेकिन वह दौड़ता ही जाता है. ममता अधीर हो उठी थी, अवाक हो कर ऋषभ के चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी. चाहती थी कि उसका पुत्र अत्यंत तुरंत स्वीकार कर ले कि वो गंध उसकी मा की ही है और जिसकी तारीफ़ भी वह पूर्व में कर ही चुका था. निश्चित तौर पर तो नही परंतु हमेशा की तरह ही वह अपनी चूत की गहराई में अत्यधिक सिहरन की तीव्र लहर दौड़ती महसूस करने को बेहद आतुर हो चली थी, जिसके एहसास से वह काफ़ी दीनो से वंचित थी.

"माना पहले उसने झूट बोला था मगर दोबारा बोलने की संभावना अब बिल्कुल नही है" उसने मंन ही मंन सोचा और ऋषभ के जवाब की प्रतीक्षा करने लगती है.

"मा! मैं परेशान हूँ" ऋषभ हौले से बुद्बुदाया, उसका कथन और स्वर दोनो एक-दूसरे के परिचायक थे.

ममता को पुष्टिकरण चाहिए था वह भी एक मर्द से, फिर चाहे वह मर्द उसका सगा बेटा ही क्यों ना था. उसने अपने चेहरे की शरमाहट को छुपाने का असफल प्रयास किया और फॉरन चहेक पड़ी.

"हां हां बोल ना, मैं सुनना चाहती हूँ रेशू" उसके अल्फाज़ो में महत्वाकांक्षा की प्रचूरता व्याप्त थी जैसे अपने व्यक्तिगत रहस्य को अपने पुत्र के साथ सांझा करने में उसे बेहद प्रसन्नता हो रही हो.

"तुम पहली बार क्लिनिक पर आई और मैने चाइ-पानी के लिए भी नही पुछा" ऋषभ ने शरारत की, वह बेहद उदासीन लहजे में बोला मानो उस विषय से अपना पिच्छा छुड़ाने की कोशिश कर रहा हो. उसकी मा पहले ही उस पर अपनी भावनाओं को काफ़ी हद्द तक अभिव्यक्त कर चुकी थी और वह नही चाहता था कि इससे ज़्यादा खुलापन्न उनके दरमियाँ उत्पन्न हो.

"मैं यहाँ शीतल से मिलने आई थी" ऋषभ का कथन सुन कर ममता को झटका अवश्य लगता है परंतु वह कर भी क्या सकती थी और पुत्र द्वारा अवमानना हासिल करने के उपरांत ही उसने स्पष्ट-रूप से अपने आगमन का उल्लेख कर दिया.

"शीतल से" ऋषभ चौंका "मगर मा! वह तो नौकरी छोड़ कर वापस अपने घर चली गयी" उसने बताया.

"पर पिच्छले साप्ताह तक तो यहीं थी" स्वयं ममता भी हैरान हो उठती है.


Contd...

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