मेरी बीवी अनुश्री -1
प्रस्तावना
दोस्तों, आप सभी के सामने मैं एक ऐसी कहानी पेश कर रहा हूं, जिसमें मेरी और मेरी पत्नी अनुश्री की पूरी ओडिशा यात्रा का जीवंत वर्णन है।
ये यात्रा सिर्फ घूमने-फिरने की नहीं, बल्कि स्त्री के मन मस्तिक मे छिपी उन इच्छाओं, कामुक स्पर्शों और अनजाने रोमांच की है, जो आम स्त्री को महसूस नहीं होती, ये सफर मेरा और मेरी बीवी अनुश्री की जिंदगी के प्रति सोच बदल देने वाला सफर होने वाला था.
मेरी बीवी अनुश्री..
उफ्फ्फ्फ़... एक जीती-जागती कयामत है, एक ऐसा पटाखा जिसे देख किसी भी मर्द की दिल मे आग लग जाये,
उसका बदन ऐसा कि अच्छे-अच्छे फिसल जाएं, कामुकता की मिसाल। मात्र 24 साल की उम्र में वो ऐसी हसीन औरत है, जो न ज्यादा मॉडर्न है, न ज्यादा संस्कारी। साड़ी पहनने से बचती है, लेकिन बदन दिखाऊ कपड़ों से भी परहेज करती है।
उसका फिगर 36-30-38 का जानलेवा है – वो उभरे हुए स्तन जो किसी भी ब्लाउज को तंग कर दें, वो पतली कमर जो स्पर्श करने को उकसाए, और वो भारी नितंब जो चलते वक्त लहराते हुए किसी को भी मदहोश कर दें। ऐसा जिस्म भला किसी कपडे मे छुप सकता है, उसका गोरा, मखमली बदन कपड़ो के बहार भी चमकता है,
होंठ गुलाबी, मोटे और रसीले, जो चूमने को आमंत्रित करते हैं। आंखें बड़ी-बड़ी, काली और गहरी, जिनमें कामुकता की चिंगारी छिपी है।
बाल लंबे, घने और काले, जो उसके कंधों पर लहराते हुए उसके जिस्म की रूपरेखा को और ज्यादा हाइलाइट करते हैं।
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हमारी शादी को चार साल हो चुके हैं। पैसों की तंगी की वजह से हम कभी हनीमून पर नहीं जा सके। बच्चे पैदा करने का भी सोचा नहीं, और अब जब सोचा तो हो ही नहीं रहे।
डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन कोई मर्ज समझ नहीं आया। घरवालों की सलाह से पूरी जाने का प्लान फिक्स हुआ – जगन्नाथ जी से जो मांगो, मिलता है। वैसे भी इतने सालों में हम कहीं घूमने नहीं गए थे, तो ये मौका सुनहरा अवसर सा लगा।
सबसे पहले मैं अपना नाम बता दूं – मेरा नाम मंगेश है, इस साल 30 का हो गया हूं। दिखने में सामान्य भारतीय मर्द जैसा ही हूं, कोई हीरो नहीं।
अब बात मेरे सेक्स जीवन की। शादी के शुरुआती दिनों में मैंने अनुश्री को खूब भोगा, खूब पेला – जैसा कि आमतौर पर सब करते हैं। उसके उभरे स्तनों को मसलते हुए, उसकी पतली कमर को पकड़कर, उसके नितंबों को थपथपाते हुए मैं रातें गुजारता था।
लेकिन समय के साथ-साथ वो आग ठंडी पड़ गई। मैं अपना धंधा जमाने में व्यस्त हो गया। इस व्यस्तता में कब अपनी पत्नी को खो बैठा, पता ही नहीं चला। लेकिन आम भारतीय नारी की तरह उसने कभी शिकायत नहीं की, न कोई गिला। जो था, जैसा था, चलने दिया।
तो ये कहानी है मेरी और मेरी पत्नी अनुश्री की – एक ऐसी कहानी जहां कामुकता की लहरें फिर से उठेंगी, स्त्री के होना क्या है ये मुझे इसी सफर मे मालूम पड़ा.
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तो घरवालों की सलाह से हमारा जगन्नाथ पूरी जाने का प्लान आखिर बन ही गया।
मेरा बिल्कुल मन नहीं था जाने का, मेरे बिजनेस में नुकसान होता। लेकिन मां की डांट की वजह से जाना पड़ रहा था।
ये पहली बार था कि हम शादी के बाद कहीं बाहर घूमने जा रहे थे।
"आप खुश तो हो ना? कोई समस्या तो नहीं ना?" अनुश्री ने बिस्तर पर मेरे पास लेटते हुए पूछा
"नहीं जान, बल्कि खुश हूं कि काफी समय बाद हमारे घूमने का संयोग बना है।"
अगली सुबह हमारी ट्रेन थी। आज रात खुशी-खुशी मैंने अपनी बीवी को जमके पेला – पूरे 5 मिनट। अब मेरा तो यही होता है, जमके पेलना। साड़ी उठाई और पेला जमके। उसके गोरे, नरम जांघों के बीच घुसकर, उसके स्तनों को दबाते हुए मैंने खुद को खो दिया। अनुश्री को भी इसी सेक्स की आदत थी – उसके लिए सेक्स यही होता है, 5 मिनट का। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
पति ख़ुश तो पत्नी भी ख़ुश, उसने आज भी शिकायत नहीं की.
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सुबह ही चली थी।
मेरी बीवी अनुश्री जमके तैयार हुई – पीली साड़ी, स्लीवलेस लाल ब्लाउज, माथे पर बिंदी और सिंदूर, हाथों में चूड़ियां, गले में लटकता मंगलसूत्र।
उसका गोरा मखमली बदन साड़ी में चमक रहा था, जैसे सूरज की किरणें उसके जिस्म पर नाच रही हों। उसके स्तन इतने बड़े और कठोर थे कि न चाहते हुए भी ब्लाउज से बाहर आने को बेताब रहते, उभरे हुए निपल्स की आकृति साफ झलक रही थी,
उसकी कमर पर पतली साड़ी की प्लीट्स कसी हुई थी, साड़ी नाभि के काफ़ी नीचे बँधी हुई थी, उसे अपना पेट कसना बिल्कुल पसंद नहीं था,
सुडोल गांड पर सारी बिल्कुल कस गई थी। उसकी मोटी सुडोल गांड उभर के बहार आ छलकी थी, उसे इस बात का अहसास ही नहीं था कि वो किस कदर सुंदर है। उसे लोग घूरते थे, लेकिन उसे ये बात सामान्य ही लगती।
मैंने भी जींस-शर्ट टांग ली अपने बदन पर।
"कैसी लग रही हूँ मै " अनुश्री ने कांच मे देख पूछा
"हम्म्म्म.... अच्छी.." मेरा ध्यान उस पर था ही नहीं
मेरी बीवी सुंदर तो थी ही, आज और ज्यादा लग रही थी। लेकिन शादी के 4 साल बाद कौन तारीफ करे? बस यही सब गलतियां मैं करता जा रहा था।
हम लोग बड़े-बुजुर्गों से आशीर्वाद ले चल पड़े जगन्नाथ पूरी की यात्रा पर।
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ट्रेन टाइम पर ही थी, सुबह 8 बजे हम ट्रेन में चढ़ गए।
अब मेरे पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, इसलिए मैंने अपना टिकट 3rd AC में करवाया था।
हम अपने डब्बे में चढ़ गए।
मैंने सामान सेट किया और सीट पर बैठ गए।
अनुश्री बहुत खुश थी आज, उसकी खुशी उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। होंठों पर लाली लिए उसके होंठ और ज्यादा कामुक और मादक लग रहे थे – जैसे गुलाब की पंखुड़ीया खुल गई हो,
डब्बे में मौजूद हर शख्स की नजर मेरी बीवी पर ही थी। मुझे ये सब सामान्य लगा – अब सुंदर चीज देखने के लिए ही तो होती है ना।
लेकिन मजाल कि मेरी बीवी किसी की तरफ आंख उठाकर देख ले।
मुझे अपनी बीवी की खूबसूरती और संस्कार पर गर्व होने लगा।
तभी एक दंपति मेरी सीट के पास आए।
"भाईसाहब, ये सीट मेरी है। उठिए आप।" एक लड़का मेरे सर पर चढ़ आया था
"ऐसे कैसे? ये तो मेरी सीट है, मेरा रिजर्वेशन है।" मैंने सकपाकते हुए बोला
हम दोनों मे बातचीत होने लगी,
तभी TTE भी शोर सुनके पास आया। "क्या बात है? क्या प्रॉब्लम है?"
"देखिए ना सर, ये मेरी सीट है और ये भाईसाहब बोल रहे हैं कि मेरी है।" मैंने अपना टिकट tte को दिखाते हुए कहा
TTE ने हम दोनों के टिकट लिए, टिकट देखा फिर मुझे देखा: "भाईसाहब, ऐसा करें आप अगले स्टेशन से उतर के पीछे जनरल डब्बे में चले जाएं और फाइन भी भरते जाएं।"
"ऐसे कैसे...? कैसी बात कर रहे हैं आप?" मेरे और अनुश्री के चेहरे पर चिंता की लकीरें आ गईं।
"ये टिकट कल की डेट का था और आप आज ट्रेवल कर रहे हैं। पढ़े-लिखे हैं, देख के टिकट तो बुक करते।" TTE ने अपनी चालान बुक निकाल मुझे अपना टिकट वापस थमा दिया.
अब मैं सकते में आ गया था। मेरे से भागमभाग में बड़ी गलती हो गई।
TTE से टिकट लगभग छीन के किसी उल्लू की तरह कभी टिकट देखता, कभी TTE को।
"चलिए ना घर ही चले जाएंगे। यात्रा शुरू होते ही व्यवधान आ गया। कोई अनहोनी ना हो जाए।" अनुश्री के चेहरे पे चिंता साफ झलक रही थी.
"कैसी बात करती हो अनु? मैं धंधा-पानी छोड़ के छुट्टी ले के आया हूं वापस जाने के लिए? तुम बैठो, मैं देखता हूं।"
मैंने बड़ी उम्मीद की नजर से TTE की तरफ देखा, जो कि मेरी बीवी को ही देख रहा था। उसकी नजरें कहीं टिकी हुई थीं – शायद अनुश्री के उभरे स्तनों पर, जो ब्लाउज से बाहर झांक रहे थे।
जबकि अनुश्री सर झुकाए बैठी थी। उसके स्तन वाकई ऐसे थे कि न चाहते हुए भी लोगों को दर्शन दे ही देते थे। ये बात मेरे लिए सामान्य ही थी, लेकिन हो सकता है TTE के लिए ना हो। मेरी आवाज से TTE का ध्यान भंग हुआ।
"सर, कुछ हो नहीं सकता? अब वापस जाऊंगा तो अच्छा नहीं लगेगा।" मैंने लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोला
"बता तो चुका, अगले स्टेशन उतर के जनरल डब्बे में चले जाओ। उसका चालू टिकट मैं दे देता हूं। लाओ हजार रुपए।"
मैंने लाख कोशिश की लेकिन जवाब वही – जगह नहीं है।
"जनरल डब्बे में कैसे जाएंगे हम लोग?" अनुश्री की चिंता जायज थी
"अरी तुम डरती बहुत हो। वहां कोई भूत नहीं रहते हैं, इंसान ही हैं वो भी। खूब सफर किया है जनरल डब्बे में मैंने ।"
अगले स्टेशन उतर के चले जाएंगे। वैसे भी रात 12 बजे तक की ही बात है, पूरी पहुंच जाएंगे। कम से कम वहां बैठने की जगह तो मिलेगी।
मेरा जाने का कोई मूड नहीं था, 8,10 घंटे के लिए ट्रैन छोड़ देना कोई समझदारी की बात नहीं थी.
मेरे आगे अनुश्री कुछ बोल न सकी। उसका चेहरे पे "ना" ही दिख रही थी,
ट्रेन धीमी होने लगी... हम लोगों ने अपने बैग उठा तैयार हो गए जनरल डब्बे में जाने के लिए।
बस मैं यही जिंदगी की सबसे बड़ी गलती कर गया.... मुझे नहीं जाना था जनरल डब्बे में।
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अनुश्री का नजरिया
मैं अनुश्री।
अपने पति के साथ जगन्नाथ पूरी यात्रा पर निकली हूं।
मेरा मन सुबह से ही किसी अनजान आशंका से घबरा रहा था, फिर ट्रेन में चढ़ते ही ट्रेन का लफड़ा हो गया।
मैं जनरल डब्बे में बिल्कुल भी नहीं जाना चाहती थी, लेकिन अपने पति मंगेश की बात मान कर स्टेशन पर उतर गए।
यहां ट्रेन ज्यादा समय के लिए रुकती नहीं थी, तो मंगेश दोनों हाथों में दो बैग लिए दौड़ते हुए पीछे की तरफ भागे जा रहे थे।
मैं भी उनके पीछे-पीछे लगभग भागती हुई चली जा रही थी।
"आज का दिन ही खराब है। कहां मैं ये ऊंची हील की सैंडल पहन आई, अच्छे से चला भी नहीं जा रहा।"
तेजी से चलने की वजह से मेरी साड़ी अस्तव्यस्त हो रही थी। कभी पल्लू गिरता तो उसे उठाती, तो कभी अपना हैंडबैग संभालती। कभी हवा के जोर से साड़ी हट जाती और नाभि दिखने लगती – भागने से मेरे स्तन उछाल उछल कर ब्लाउज से बहार आने को मरे जा रहे थे, मै बार बार उन्हें पल्लू से ढकने की निकाम कोशिश कर रही थी, जाँघे आपस मे रगड़ खा रही थी, गांड के पल्ले आपस मे रगड़ जा रहे थे,
ना जाने क्यों सभी लोग मुझे ही देख रहे थे, या मेरा भ्रम था। शायद मुझे क्यों देखेंगे भला?
"देख तो साली की गांड क्या हिल रही है। साली खड़े-खड़े पानी निकाल देगी ये तो।" जल्दी-जल्दी चलते हुए मेरे कानों में ये शब्द पड़ गए, जो कि दो कुली आपस में बात कर रहे थे।
ये शब्द नए नहीं थे मेरे लिए। मैं अक्सर अपने जिस्म की तारीफ सुन लिया करती थी – कभी मार्केट में सब्जी लेते वक्त, तो कभी मॉल में, कभी सिनेमा हॉल में। लोग मेरे स्तनों की उभार, मेरी कमर की मटकन, मेरे नितंबों की गोलाई पर फिदा होते थे। लेकिन मैं जल्दी में थी, मैंने उनपर ध्यान नहीं दिया।
कुकुकु..... ओह शिट, ट्रेन चलने लगी।
ट्रेन को चलता देख मेरे हाथ-पांव फूलने लगे।
मंगेश भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, लगता है मैं काफी पीछे रह गई थी।
तभी एक आवाज आई: "अनु, उसी डिब्बे में चढ़ जाओ। अगले स्टेशन में पीछे आ जाना।"
सामने देखा तो मेरे पति मंगेश D3 डब्बे से हाथ हिला के बोल रहे थे।
D1 मेरे सामने था, मुझे उनका सुझाव ही सही लगा।
ट्रेन अभी मध्यम गति पर ही थी। D1 के दरवाजे पर वैसे ही भीड़ थी। मैं चढ़ने को ही थी कि पल्लू सरक गया – मेरे उभरे स्तन ब्लाउज में कैद थे, लेकिन पल्लू के बिना और ज्यादा उजागर हो गए, जैसे दो गोल सुडोल नारंगिया बहार झाँक रही हो, जिनकी चोटियां ब्लाउज से साफ झलक रही थीं।
मै अपना पल्लू संभालती की, उससे पहले ही दो हाथ मेरे पिछवाड़े आ के लग गए।
"अरे जल्दी चढ़ो मैडम, ट्रेन निकल जाएगी।" एक जोड़ी हाथ पूरी तरह मेरे कुल्हों पर कस गए – मेरे भारी, नरम नितंबों को दबाते हुए, जैसे मसल रहे हों। भीड़ इतनी थी कि ना पल्लू उठाने का समय था, ना पीछे देखने का। वो स्पर्श बेहद कड़क और मर्दाना था, ये स्पर्श एक अनचाहा लेकिन शरीर में एक झनझनाहट पैदा कर रहा था।
D3 डब्बे मे
"हाहाहाहा......आप कहाँ जा रहे है भाईसाहब?"
यहाँ मंगेश को बैठने के लिए जगह भी मिल गई थी और एक व्यक्ति "राजेश" भी.
जो कि अपनी माता जी को जग्गन्नाथ मंदिर के दर्शन कराने ले जा रहा था.
बातो ही बातो मे मालूम पडा कि राजेश भी गुजरात से ही है और छोटी मोटी कपडे कि दुकान चलाता है.
और मंगेश कपड़ो का ही होलसेल व्यपारी है
इस वजह से ही दोनों एक दूसरे कि तरफ आकर्षित हुए.
" कुछ नहीं भैया माँ को इच्छा थी तो मंदिर दर्शन करा लाओ तो अब समय मिला तो चल पडा" राजेश ने सामने बैठी अपनी माँ कि और इशारा करते हुए बताया
मंगेश ने भी औपचारिक अभिवादन किया. "नमस्ते आंटी जी "
राजेश कि माँ रेखा पिछले 15 सालो से विधवा औरत का जीवन बिता रही है.
अपना ध्यान पूजा पाठ मे ही लगाती है. दिखने मे कतई खूबसूरत है भरा हुआ मगर तराशा हुआ बदन मात्र 45 साल कि भरपूर जवान औरत है.
हमेशा बदन ढका ही रहता है, परन्तु बदन था ही ऐसा कि ना चाहते हुए भी साड़ी से बाहर ही झाँकता रहता था,
कभी गदराया पेट दिख जाता तो कभी बड़े और मोटे स्तनों के बीच कि कामुक दरार.
अब इस ढके बदन मे कितना कीमती अनमोल अनछुआ खजाना छुपा है कोई नहीं जानता..
राजेश 10 साल का था तब उसके पति दुनिया से रुख़सत हो लिए परन्तु अपने पीछे कपडे कि दुकान छोड़ गए.जिसे अब राजेश संभालता है.
रेखा ने भी मुस्कुरा के अभिवादन का जवाब दिया. "नमस्ते बेटा "
"भाभीजी कही दिख नहीं रही?" राजेश ने पूछा
" अरे यार वो भीड़ बहुत थी फिर टिकट का लफड़ा हो गया तो जल्दबाजी मे D1 मे चढ़ गई" मंगेश ने अब तक की कहानी सुना दि.
" अभी फ़ोन कर के हाल चाल जान लेता हूँ," मंगेश ने जेब से फ़ोन निकाल अनुश्री का नंबर दर्ज करना शुरू किया.
"हेलो अनुश्री..." ये वही वक़्त था जब अनुश्री मिश्रा और अब्दुल के बीच फसी हुई थी और उसका मोबाइल बजा था.
"अरे बाप रे बहुत गुस्से मे है" मंगेश ने मोबाइल जेब मे ठूस लिया, उसे सब मज़ाक लग रह था.
" हाहाहाहा..... भीड़ और गर्मी है ही इतनी, वैसे अगले स्टेशन आने मे अभी 2 घंटे है" राजेश ने घड़ी देखते हुए कहा.
मंगेश यहाँ आराम से था दोस्त भी बना लिया था.
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परन्तु D1 मे अनुश्री कि हालात ख़राब थी एक तो गर्मी ऊपर से अभी जो अब्दुल का हाथ उसकी पसीने से लथपथ कांख मे फस गया था उस से वो काफ़ी शर्मिंदा हो चली थी.
अब्दुल अपना हाथ खींचने मे कामयाब हो गया था परन्तु उसका हाथ बुरी तरह अनुश्री कि कांख से रगड़ गया था फलस्वरूप उसकी हथेली के आस पास एक मादक महक ने जगह ले ली थी,
अब्दुल के लिए ये सब किसी सपने जैसा था उसने तो कभी इतने पास से अमीर घरेलु गोरी औरत को देखा तक नहीं था, आज किस्मत कि मेहरबानी देखिये कि थोड़ी देर पहले अनुश्री जैसे मादक खूबसूरत औरत का पसीना लगवा चूका था.
किसी बे सही कहाँ है " अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान "
"शनिफ्फफ्फ्फ़.... शनिफ्फ्फ्फफ्फ्फ़....ईईस्स्स.....जोर से सांस खींचने कि आवाज़ अनुश्री के कानो मे पड़ी,
हैरानी से उसने पीछे देखने कि कोशिश कि परन्तु अत्यधिक भीड़ मे फसे होने से पलट ना सकी.गर्दन झुकाये आंखे तिरछी कर कनखिओ से देखने कि कोशिश कि तो शर्म और हैरानी से पानी पानी हो गई, काटो तो खून नहीं उसका गला सूखने लगा,
पीछे अब्दुल अपने हाथ को सूंघ रहा था, सूंघ क्या रहा था नाक मे ही घुसेड़ लिया था अपने हाथ को.
"आअह्ह्ह....क्या महक है " अब्दुल के मुँह से निकल ही गया.
ये शब्द सीधा अनुश्री के कान से टकरा गए. उसके लिए ये हिकारात का विषय था कोई आदमी ऐसा कैसे कर सकता है "छी...कितना गन्दा है ये "
हालांकि उसका दिमाग़ इस हरकत को गन्दापन बोल रहा था परन्तु अब्दुल कि इस हरकत से अनुश्री को अपने बदन मे एक अजीब सी हलचल का अहसास हुआ, ये कैसी हलचल थी कह नहीं सकते क्यूंकि ऐसा उसने कभी जीवन मे देखा नहीं था, ना ही ऐसा महसूस किया था,
"क्या मेरा पसीना खुसबूदार है?" नहीं नहीं.....ऐसा नहीं है मंगेश ने तो कभी ऐसा नहीं कहाँ " अनुश्री अपने मन मे उठते सवालों का जवाब भी खुद ही दे रही थी.
अब्दुल ने उसकी घबराहट को और बड़ा दिया था. परन्तु खुद के पसीने कि तारीफ उसे पसंद भी आई थी.
क्यूंकि उसे आपने अब तक के जीवनकाल मे ऐसा कुछ देखने सुनने को नहीं मिला था, ये कुछ अलग था, रोमांचक था.
अभी अनुश्री अपनी ही उलझन मे थी कि....
तभी चररर....चररर....ट्रैन को झटका लगा
"लगता है किसी ने चैन खिंच दी." मिश्रा, अनुश्री को देख्ग्ते हुए दाँत चियाते हुए बोला.
" लोग बहुत हरामी हो गए है अपने बाप कि ट्रैन समझते है उफ्फ्फ...ऊपर से ये पसीना" बोलते हुए अब्दुल अपने माथे पे हाथ रख पसीना पोछ के हाथ को नीचे झटका दे दिया,
लेकिन पसीने से भीगा हाथ सीधा अनुश्री कि नंगी पीठ से जा टकराया.
"आउच...क्या बदतमीज़ी है ये " अनुश्री लगभग चिढ़ती हुई बोली परन्तु उसे अब्दुल के पसीने कि ठंडक साफ अपनी कमर पे महसूस हुई.
अब वो कपडे भी तो ऐसे ही पहन के आई थी ना,उसे क्या पता था कि जनरल डब्बे मे चढ़ना पढ़ेगा.
पीछे से लगभग नंगी ही थी अनुश्री मात्र एक डोरी से उसका ब्लाउज पीठ पे बंधा हुआ था.
उसे इस बात का अहसास तो हो चूका था कि अब्दुल उसकी गोरी पीठ को घूर रहा है परन्तु अब कर ही क्या सकती थी.
ट्रैन जंगल बिहड़ मे पूरी तरह रुक चुकी थी, ट्रैन मे हलचल होने लगी थी,
"क्या हुआ भाई क्या हुआ ट्रैन क्यों रुक गई?" भीड़ मे आवाज़ आने लगी सबके मन मे कोतुहाल था.
भीड़ मे फसे होने से हवा भी नहीं लग रही थी.अनुश्री के माथे और पीठ पे पसीने कि बुँदे उभर आई थी.
"अरे यार कितनी गर्मी है," बोलते हुए मिश्रा ने अपनी शर्ट के दो चार बटन खोल दिए.
मिश्रा अनुश्री कि ठीक सामने ही खड़ा था, ना चाहते हुए भी अनुश्री कि नजर मिश्रा पे चली गई.
मिश्रा के छाती के घने बाल पसीने से चमक रहे थे.
पसीने और गर्मी कि वजह से मिश्रा के बदन कि गन्दी महक निकल के अनुश्री के नाथूनो मे समाने लगी...
एक शुद्ध मर्दाना महक थी मिश्रा कि.
अनुश्री का दिमाग़ चढ़ गया इस महक से "छी कितनी गन्दी महक है, कैसा जाहिल आदमी है ये, सामने एक औरत खड़ी है और इसे तमीज़ भी नहीं है शर्ट के बटन खोल दिए"
मन मे बड़बड़ती अनुश्री ने मुँह फेर लिया उसकी नजरों मे हिकारात थी, घिन्न थी ऐसे लोगो के लिए जिसे कद्र नहीं थी औरत की, परवाह नहीं थी, तमीज़ नहीं थी की एक स्त्री के सामने कैसे बिहेव करते है.
लेकिन अनुश्री के हाव भाव से मिश्रा समझ गया कि अनुश्री को उसका बटन खोलना पसंद नहीं आया
"क्या करे मैडम जी गर्मी बहुत है ना, अब आपको तो ac मे रहने कि आदत है लेकिन हमारा क्या है गर्मी लगती है तो कपडे खोल लेते है " ऐसा बोला मिश्रा ने अपने बेहूदा मुँह खोल के अपनी गन्दी बत्तीसी दिखा के मुस्कुरा दिया.
अनुश्री इस मुस्कुराहट और खुद को बार बार अमीर कहे जाने से शर्मिंदा हो गई, उसको ऐसा लग रहा था जैसे उसे बार बार अमीर औरत कह के कोसा जा रहा हो.
जबकि वो ऐसी लड़कियों मे से नहीं थी, वो पढ़ी लिखी थी खुद कि अमीरी दिखाती नहीं थी. उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, भारत की अधिकतर आबादी ऐसी ही होती है, ऐसे ही जनरल कोच मे सफर करने पर मजबूर है.
इस झेप और शर्मिंदगी मे अनुश्री के सर के पीछे से एक पसीने कि बून्द चल पड़ी जो कि उसकी पीठ के बीच बनी रीड की खाई मे होते हुए नीचे कि और सरकने लगी,
नीचे बढ़ती पसीने कि बून्द किसी नदी कि तरह बहती अब्दुल के पसीने से जा मिली.
दोनों के पसीने के मिलन से एक मर्दाना और जनाना मादक महक उत्पन्न होने लगी जो अनुश्री के नाथूनो ने साफ महसूस कि. ये महक गन्दी थी परन्तु कुछ नशा सा था इस महक मे, एज़ स्मेल थी कैसेली सी, जिसे सुंघा भी नहीं जा सकता लेकिन सूंघ बिना रहा भी नहीं जा सकता, इस गंध का असर धीरे धीरे अनुश्री के चेहरे पे दिख रहा था.
पसीने कि बून्द पानी कि धार कि तरह कमर से होती हुई दोनों निताम्बो के ऊपर बँधी साड़ी मे समाने लगी.
अब्दुल ही था जो ये ब्राह्मण का अद्भुत दृश्य देख पाया था परन्तु पर्दे के पीछे और कुछ हुआ था.
रीढ़ कि हड्डी रूपी नदी मे चलती पसीने के बून्द साड़ी के अंदर अनुश्री कि बड़ी गांड के दरार मे समा रही थी.
जैसे कोई नदी किसी खाड़ी मे गिर रही हो.
दो पसीने छोड़ते मर्दो के बीच फंसी अनुश्री पसीने से नहा गई थी.
पसीने कि बून्द रिसते हुए सीधा गुदा छिद्र तक जा रही थी, लगातार ऐसा होने से अनुश्री के गांड कि दरार मे गिलापन और खुजली उत्तपन होने लगी.
खुजली और गीलेपन को मैनेज करने के लिए अनुश्री कभी अपनी एक टांग को हल्का सा उठाती तो कभी दूसरी को, ऐसा करने से उसके गांड के दोनों हिस्से आपस मे रगड़ खाते तो कुछ आराम मिलता.
साड़ी के अंदर छोटी सी पैंटी पूरी तरह पसीने से गीली हो कर गांड पे चिपक गई थी, जिस वजह से अनुश्री को काफ़ी असहज़ महसूस हो रहा था.
परन्तु ये प्रयास नाकाफी था, अनुश्री का मन तो कर रहा था कि हाथ डाल के अपनी पैंटी निकाल फेंके, परन्तु मर्दो के बीच ऐसा संभव नहीं था वो सिर्फ मचल के रह जा रही थी. गुदाछिद्र पे पसीने कि बुँदे लगातार खुजली पैदा कर रही थी.
पीछे खड़ा अब्दुल उसकी ये मचलन को भलीभांति परख पा रहा था, उसे अनुश्री कि मचलती गांड का अहसास हो रहा था. अनुश्री अपने भारी कुल्हो को सुकून देने कि कोशिश मे इधर उधर हिला रही थी कभी गांड को जोर लगा के भींचती जिस वजह से गुदा छिद्र सिकुड़ता और खुलता तो कुछ राहत का अहसास होता.
"क्या हुआ मैडम गर्मी लग रही है " पीछे से अब्दुल कि भारी आवाज से अनुश्री चौक गई.
"ह....हाँ...हाँ....वो गर्मी बहुत है " वो ऐसे हकलाते हुए चौकी जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो.
अनुश्री शर्म और मर्दाना पसीने कि गंध को लगातार झेल रही थी उसका बदन गरम हो रहा था अब इसका कारण गर्मी ही थी या कुछ और कह नहीं सकते.
कहानी जारी है...
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