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मेरी माँ कामिनी -3


अपडेट - 3


कामिनी ने बाथरूम का दरवाज़ा बंद किया और कुंडी चढ़ा दी। एक "खट" की आवाज़ के साथ वह बाहरी दुनिया से कट गई—न कोई बेटा, न कोई शराबी पति, और न ही समाज की बेड़ियाँ। यहाँ सिर्फ़ वह थी, उसका उबलता हुआ जिस्म था और कांच में दिखती उसकी परछाई।
बाथरूम की सफ़ेद रौशनी में कामिनी की साँसें भारी चल रही थीं।
उसने कांपते हाथों से अपने ब्लाउज के हुक खोले। टक.. टक...एक...टक.... दो... टककककक.....तीन।
जैसे ही ब्लाउज हटा, उसकी भारी भरकम छाती, जो अब तक कसकर कैद थी, ब्रा के कप्स से बाहर झलकने लगी। साँस लेने की आज़ादी मिलते ही उसके गोरे, भरे हुए स्तन और भी ज्यादा फूल गए थे, जैसे बाहर आने को बेताब हों। ब्रा की पट्टियाँ उसके मांस में धंस गई थीं, और वहाँ लाल निशान पड़ गए थे।
उसने पेटीकोट का नाड़ा खोला। पेटीकोट सरक कर पैरों में गिर गया।
अब वह सिर्फ़ ब्रा और पैंटी में थी। 40264dc2cdcacce96ef56a48738c7023
कामिनी की नज़र सामने लगे आदमकद शीशे पर गई। वह ठिठक गई।
क्या यह वही है? 36 साल की एक औरत? एक जवान लड़के की माँ?
शीशे में जो औरत खड़ी थी, वह किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थी। भरा हुआ, गठीला बदन, चौड़ी कमर, गहरी नाभि और पसीने से चमकता हुआ गोरा रंग।
उसकी नज़र अपनी पैंटी पर गई। सफ़ेद रंग की पैंटी बीचों-बीच से पूरी तरह पारदर्शी हो चुकी थी। वहाँ एक बड़ा सा गीला धब्बा था।
कामिनी ने झुककर अपनी पैंटी उतारी।
उतारते वक़्त उसने महसूस किया कि उसकी जांघों के बीच एक लिसलिसा पदार्थ लगा है। images-7 पैंटी का कपड़ा उसकी योनि से चिपक गया था। और ऐसा चिपका था की फुला हुआ त्रिकोण साफ अपनी मौजूदकी का अहसास दिला रहा था, कामिनी ने अपने काँपते हाथो से अपनी कच्छी की इलास्टिक को पकड़ आगे की ओर खिंच दिया,  एक गाढ़े तार जैसा द्रव  खिंचता हुआ उसकी कच्छी से चिपक अलग होने लगा.

बिलकुल चाशनी जैसा—गाढ़ा, चिपचिपा और गर्म।
ऐसा उसने आज से पहले नहीं देखा था, ऐसा गाड़ा गिलापन कभी नहीं आया था, 
अनायास ही उसने अपनी उंगलियों पर उस कामरस को मसल कर देखा। images-4 4bcfe343e2c27462a0bb7d360d6806de उसे खुद पर शर्म भी आ रही थी और हैरानी भी। उसका शरीर इतना रस छोड़ रहा था?
सांसे भूल रही थी, स्तन और भी कड़क हो चुके थे.
अब बारी थी उस "जंगल" को साफ़ करने की।
कामिनी ने वीट क्रीम का डिब्बा खोला।
उसने प्लास्टिक के स्पैचुला को किनारे रख दिया और क्रीम अपनी उंगलियों पर ली।
जैसे ही उसकी उंगलियां उसकी जांघों के बीच उस बालों से भरे हिस्से पर लगीं, उसके बदन में एक बिजली सी दौड़ गई।
क्रीम ठंडी थी, और उसकी त्वचा जल रही थी।
उसने धीरे-धीरे क्रीम लगाना शुरू किया। अनजाने में उसकी उंगलियां उसकी जांघों के जोड़ों, उसकी नाभि और फिर ऊपर उठकर उसके स्तनों तक पहुँच गईं।
एक अजीब सी मादकता ने उसे घेर लिया था।
उसने अपनी ब्रा के ऊपर से ही अपने स्तनों को भींच लिया। निप्पल, जो अब तक सोए हुए थे, कपड़े के अंदर ही तनकर पत्थर जैसे हो गए थे।
"उफ्फ्फ..." उसके मुँह से एक सिसकी निकली।
कुछ मिनटों के इंतज़ार के बाद, उसने पानी का शावर चलाया और उस हिस्से को साफ़ करना शुरू किया।
जब सारे बाल साफ़ हो गए और उसने तौलिए से पोंछा, तो वह नज़ारा देखकर दंग रह गई।
सालों बाद उसने अपनी योनि को इस तरह देखा था।
बालों का वह काला जंगल अब गायब था।
वहाँ अब सिर्फ़ गोरा, चिकना मांस था। रौशनी पड़ते ही वह हिस्सा चमक रहा था।
उसकी चूत थोड़ी सूजी हुई और फूली हुई लग रही थी।
जांघों के बीच जैसे एक 'समोसा' रखा हो—उभरा हुआ, मांसल और बेहद खूबसूरत।
और उस उभार के बीचों-बीच एक गुलाबी लकीर थी। एक महीन दरार, जो अभी भी गीली थी।
कामिनी को यकीन नहीं हो रहा था कि यह उसी का अंग है। यह इतना सुंदर था?
उसका हाथ अपने आप उस चिकने उभार की तरफ बढ़ा।
जैसे ही उसकी हथेली ने उस बाल रहित, नंगी चूत को स्पर्श किया, कामिनी के घुटनों से जान निकल गई।
उस स्पर्श में इतना करंट था कि वह खड़ी नहीं रह सकी।
वह लड़खड़ाते हुए वहीं बाथरूम के ठंडे फर्श पर बैठ गई, बल्कि गिर ही पड़ी।
उसकी टांगें अपने आप चौड़ी हो गईं।
उसकी चूत से पानी का रिसाव अब भी जारी था, बल्कि अब और तेज़ हो गया था।
कामिनी ने अपनी हथेली उस दरार (slit) पर कसकर दबा ली, जैसे अंदर से कोई उबलता हुआ लावा निकलने वाला हो और वह उसे रोकने की कोशिश कर रही हो। 20210804-213113
"हाय राम... ये क्या हो रहा है..." वह बुदबुदाई।
लेकिन रोकने से क्या होता?
वहाँ इतनी फिसलन, इतनी चिकनाहट थी कि उसकी दो उंगलियां अपने आप रपट कर उस गुलाबी दरार के अंदर धंस गईं।
"इफ्फ्फफ्फ्फ्फ़.... उउउफ्फ्फ... आह्ह्ह्ह..."
कामिनी की गर्दन पीछे की ओर लटक गई। आँखें बंद हो गईं।
उंगलियों के अंदर जाते ही उसे जो सुकून मिला, वह किसी जन्नत से कम नहीं था। Buceta-molhadinha-gif-52 एक मीठा दर्द, एक ऐसी खुजली जो सालों से मिटाई नहीं गई थी।
बंद आँखों के अंधेरे में एक तस्वीर कौंध गई।
वो शराबी... वो धूप में चमकता हुआ, काला, लम्बा और मोटा लंड।
कामिनी का हाथ तेज़ी से चलने लगा।
उसने कल्पना की कि उसकी उंगलियां नहीं, बल्कि वही मोटा लंड उसकी चिकनी चूत को चीरते हुए अंदर जा रहा है।
पच... पच... पच...
बाथरूम में गीली आवाज़ें गूंजने लगीं।
"आह्ह्ह... और जोर से... उफ्फ्फ..."
वह अपनी मर्यादा भूल चुकी थी। वह बस एक स्त्री थी, एक कामुक अधूरी जवान औरत, जिसे संतुष्टि चाहिए थी।
लेकिन तभी...
दिमाग के किसी कोने में एक और छवि उभरी।
उसके पति रमेश का चेहरा। उसका नशे में धुत, गालियां बकता हुआ चेहरा।
और उसके साथ ही दिखा उसका वो छोटा, सिकुड़ा हुआ, बेजान लिंग।
जैसे ठंडे पानी की बाल्टी किसी ने उसके ऊपर डाल दी हो।
कामिनी का हाथ रुक गया।
वह झटके से वर्तमान में लौटी। उसकी उंगलियां अभी भी उसकी योनि के अंदर थीं।
उसने अपनी आँखें खोलीं और खुद को आईने में देखा—फर्श पर नंगी, टांगें फैलाए, अपनी ही उंगलियों से खेलती हुई।
"हे भगवान... ये... ये मैं क्या कर रही हूँ?"
संस्कारों ने उसे कसकर जकड़ लिया।
"मैं एक पत्नी हूँ... रमेश जी की पत्नी... बंटी की माँ... मैं यह गंदा काम कैसे कर सकती हूँ? एक शराबी के बारे में सोचकर?"
ग्लानि का एक भारी पहाड़ उस पर टूट पड़ा।
उसने झटके से अपनी उंगलियां बाहर निकालीं।
उसकी आँखों में आंसू आ गए। यह आंसू शर्म के थे, या अधूरी प्यास के, यह वह खुद नहीं जानती थी।
वह वहां फर्श पर सिमट कर बैठ गई, अपने घुटनों में सिर देकर रोने लगी।
उसका बदन अभी भी आग की तरह तप रहा था, चूत अभी भी फड़फड़ा रही थी और चाहत कर रही थी, लेकिन उसका 'माँ' और 'पत्नी' वाला रूप उस 'कामुक प्यासी औरत' पर हावी हो चुका था।
कम से कम अभी के लिए...
लेकिन वह नहीं जानती थी कि एक बार शेर के मुँह में खून लग जाए, तो वह शिकार करना नहीं छोड़ता। कामिनी के जिस्म ने आज सुख का जो स्वाद चखा था, वह इतनी आसानी से शांत नहीं होने वाला था।
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बाथरूम के उस तूफ़ान के बाद, कामिनी ने खुद को बमुश्किल समेटा था। उसने वापस साड़ी पहनी, सिंदूर लगाया और एक 'संस्कारी पत्नी' का मुखौटा ओढ़कर रसोई में काम करने लगी।
ना जाने कई, उसने एक बार खिड़की से बाहर झाँका,  लेकिन वो शराबी वहां नहीं था। उसे सुकून मिला, पर कहीं न कहीं एक कसक भी थी।
शाम ढल चुकी थी।
घर में हमेशा की तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। बंटी ने चुपचाप खाना खाया। उसकी नज़रें अपनी माँ के चेहरे पर थीं, वो भांप रहा था कि माँ आज कुछ बदली-बदली सी है, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं और अपने कमरे में चला गया।
लेकिन बंटी की आँखों में नींद नहीं थी। उसे चिंता थी, एक अनजाना डर था कि आज रात फिर कुछ होगा।
रात के ठीक 11 बजे, वही हुआ जिसका डर था।
दरवाज़ा जोर से खुला। रमेश लड़खड़ाते हुए घर में दाखिल हुआ। शराब की बदबू ने पूरे हॉल को भर दिया।
कामिनी पानी का गिलास लेकर दौड़ी, "जी, आ गए आप? मैंने आपकी पसंद की..."
"हट्ट रंडी..." रमेश ने गिलास हाथ से झटक दिया। पानी फर्श पर बिखर गया।
"बड़ा पसंद का खाना बनाया है साली ने... मुझे खाना नहीं, तेरी ये गरम चूत चाहिए," रमेश ने गंदी गाली बकते हुए कामिनी के बाल पकड़ लिए।
"आह्ह्ह... छोड़िये ना... बंटी जग जाएगा," कामिनी की चीख दबी हुई थी।
"जगने दे उस पिल्ले को... उसे भी पता चले उसकी माँ कितनी बड़ी रंडी है," रमेश उसे घसीटते हुए बेडरूम में ले गया और दरवाजा पैर से मारकर बंद कर दिया (लेकिन कुंडी नहीं लगाई)।

कमरे में रमेश ने उसे बिस्तर पर पटका।
"कपड़े उतार साली... नंगी हो," रमेश ने हुक्म दिया।
कामिनी का जिस्म कांप रहा था। डर से भी, और उस अजीब सी उत्तेजना से भी जो आज दोपहर से उसके बदन में दौड़ रही थी।
उसने कांपते हाथों से साड़ी गिराई, फिर ब्लाउज और पेटीकोट।
जैसे ही उसके जिस्म से आखिरी कपड़ा हटा, कमरे की पीली रौशनी में उसका बदन कुंदन की तरह दमक उठा। कामुक गद्दाराया जिस्म, सम्पूर्ण नंगा, बहार से आती ठंडी हवा ने उसके रोंगटे खड़े कर दिए थे.
कामिनी के स्तन मे कठोरपान बारकरारा था, पेट सपात लेकिन गद्दाराया हुआ, गहरी नाभि.
लेकिन आज सबसे खास चीज उसकी जांघो के बीच चमक रही थी, 

कल तक जहाँ काला जंगल था, आज वहाँ एक साफ़, चिकनी, और उभरी हुई 'चूत' चमक रही थी। एकदम गंजी, गोरी और फूली हुई।
रमेश की धुंधली आँखों ने जब उस चिकने और साफ़ हिस्से को देखा, तो एक पल के लिए वह सम्मोहित हो गया। उसका मुर्दा लंड भी उस नज़ारे को देखकर फड़फड़ाया और खड़ा हो गया।
लेकिन अगले ही पल, उसका शक उसके नशे पर हावी हो गया।
"साली... हरामजादी..." रमेश ने एक जोरदार थप्पड़ कामिनी के गाल पर जड़ा।
"ये चूत क्यों साफ़ की तूने? किसके लिए चिकनी करवाई है? बोल रंडी... मेरे पीठ पीछे किस यार से मरवा रही है?"
कामिनी गाल सहलाते हुए रो पड़ी, "क्या कह रहे हैं आप? आपने ही तो कल कहा था साफ़ करने को... मैंने तो बस आपके लिए..."
"झूठ मत बोल कुत्तिया!" रमेश चिल्लाया, "मैं सब जानता हूँ। तूने चूत इसलिए साफ़ की ताकि तेरे यार को चाटने में मज़ा आए। आज तो मैं तेरा सच निकाल कर रहूँगा।"
रमेश ने कामिनी को बिस्तर पर धक्का दिया और उसकी दोनों टांगें चौड़ी कर दीं।
"देखता हूँ कितनी आग लगी है तुझमे," रमेश कमरे में इधर-उधर कुछ ढूँढने लगा। उसे कुछ नहीं दिखा।

वह लड़खड़ाते हुए किचन की तरफ भागा।
कामिनी बिस्तर पर नंगी पड़ी सिसकती रही। उसे पता था आज रात उसकी शामत है।
रमेश वापस आया, उसके हाथ में एक लाल, मोटी और लम्बी 'गाजर' थी।
वहशीपन उसकी आँखों में तैर रहा था।
"अब देख... ये बताएगी तू कितनी सती-सावित्री है।"
कामिनी कुछ समझ पाती, उससे पहले ही रमेश ने उसकी टांगों को मोड़कर छाती से लगा दिया 20211021-102237 और बिना किसी पूर्व-चेतावनी के, वह मोटी गाजर उसकी चूत के मुहाने पर रखकर जोर से धक्का दे दिया।
"आईईईईईईईई माँ.... मर गई...." कामिनी की चीख निकल गई।
लेकिन हैरानी की बात यह थी कि गाजर अटकी नहीं।
कामिनी की चूत दोपहर से ही गीली थी। उस शराबी की याद और बाथरूम में की गई छेड़छाड़ ने अंदर इतना कुदरती लुब्रिकेंट (पानी) बना दिया था कि वह 6 इंच की मोटी गाजर एक ही झटके में जड़ तक अंदर समा गई। 32b32277ed0e9787df4b99473fd256b0083c165b
रमेश यह देखकर आग-बबूला हो गया।
"देखा... देखा रंडी!" वह चीखा, "मैं जानता था! इतनी आसानी से कैसे घुस गया? जरूर तू अभी-अभी किसी से मरवा के आई है... तेरी चूत का रास्ता खुला हुआ है साली..."
कामिनी दर्द और शर्म से लाल हो रही थी। गाजर उसकी बच्चेदानी के मुंह तक ठुंला हुआ था, लेकिन उस भरेपन से उसे एक अजीब सा, दर्दनाक सुकून भी मिल रहा था।
रमेश ने आव देखा न ताव, गाजर के बाहरी हिस्से को पकड़ा और उसे अंदर-बाहर करने लगा।
पच... पच... पच...
गाजर की रगड़ और चूत के पानी की आवाज़ें कमरे में गूंजने लगीं।
"ले... ले और ले... और मजे ले..."
रमेश एक हाथ से गाजर पेल रहा था और दूसरे हाथ से कामिनी की चिकनी चूत और थुलथुली गांड पर थप्पड़ बरसा रहा था।
"आह्ह्ह... उउउफ्फ्फ... धीरे... जी मर जाउंगी... उफ्फ्फ..." कामिनी का शरीर उस गाजर के हर धक्के पर बिस्तर पर उछल रहा था।
गाजर उसकी योनि की दीवारों को बुरी तरह रगड़ रही थी। रमेश अपनी पूरी भड़ास उस सब्जी के जरिये निकाल रहा था।


करीब 10 मिनट तक यह वहशियाना खेल चलता रहा।
रमेश की साँसें फूल गईं। नशा उस पर हावी हो गया।
"साली... भर ले इसे अपनी गांड में..." कहते-कहते रमेश का हाथ ढीला पड़ गया और वह वहीं कामिनी के पैरों के पास लुढ़क गया। कुछ ही पलों में उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कमरा शांत हो गया।
कामिनी की आँखों से आंसू बह रहे थे। वह वैसे ही टांगें फैलाए पड़ी थी।
उसकी चूत के अंदर अभी भी वह लाल गाजर पूरी तरह धंसी हुई थी, सिर्फ़ उसका हरा डंठल बाहर झांक रहा था। tumblr-nd4nn4-WUw-F1u0dmjco1-1280
उसका पूरा बदन दुख रहा था, लेकिन जांघों के बीच एक अजीब सी आग अभी भी धधक रही थी। गाजर ने उसकी प्यास बुझाई नहीं थी, बल्कि भड़का दी थी।
तभी...
सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज़ आई।
खिड़की के बाहर, नीचे गली से।
"न कजरे की धार... न मोतियों के हार... न कोई किया सिंगार..."
कोई बेसुरा गाना गा रहा था।
कामिनी चौंक गई। यह आवाज़ जानी-पहचानी थी, लड़खड़ाती आवाज़, जैसे कोई शराबी नशे मे धुत्त गाना गुनगुना रहा था, गुनगुना क्या गधे की तरह रेंक रहा था.
कामिनी का दिल जोर, जोर से बजने लगा, इस बेसुरी आवाज़ मे दम नहीं था, दम था इस आवाज़ के मलिक मे.
शायद... शायद वही है दिन वाला... कामिनी के मन मे एक अजीब सी तेज़ इच्छा हुई खिड़की से बहार झाँकने की, उसका जिस्म उसे खिड़की के पास धकेलने की कोशिश कर रह था.
उसने धीरे से उठने की कोशिश की। उसके अंदर फंसी गाजर हिली, जिससे उसे एक मीठा दर्द महसूस हुआ।
उसने अपनी चूत से गाजर को धीरे-धीरे बाहर खींचना शुरू किया।
स्लूप... पच...पच.... पूछूक....
गाजर बाहर निकली, पूरी तरह से उसके रसीले पानी और काम-रस में सनी हुई। एकदम गीली और फिसलन भरी।
कामिनी नंगी ही, हाथ में वह गीली गाजर लिए खिड़की के पास गई। उसने पर्दा हटाकर नीचे देखा।
वही दिन वाला शराबी।
इससससससस..... कामिनी राहत मे सिसकर उठी, उसे जो उम्मीद थी वही था.
वह ठीक कामिनी की खिड़की के नीचे चबूतरे पर पसरा हुआ था। एक हाथ में देसी शराब का पव्वा था और वह आसमान की तरफ देख कर गाना गा रहा था।
कामिनी को उसे देखकर एक अजीब सा गुस्सा भी आया और रोमांच भी।
न जाने क्या सनक सवार हुई, या शायद गुस्से में, उसने हाथ में पकड़ी वह गाजर खिड़की की ग्रिल से बाहर फेंक दी।
गाजर हवा में लहराती हुई नीचे गई और सीधा... 'धप' से उस शराबी के ठीक सामने गिरी।
शराबी गाना गाते-गाते रुक गया।
उसने अपनी धुंधली आँखों से देखा।
"अरे... ये क्या प्रसाद गिरा आसमान से?"
उसने कांपते हाथों से वह गाजर उठाई।
कामिनी ऊपर अँधेरे में छिपी सांस रोके देख रही थी।
शराबी गाजर को मुंह के पास ले गया।
जैसे ही उसने गाजर को सूंघा, वह रुक गया।
गाजर पर कामिनी की चूत का गाढ़ा, कस्तूरी जैसा पानी लगा था। एक मदहोश कर देने वाली, औरत की निजी गंध।
"आहा..." शराबी बड़बड़ाया, "क्या खुशबू है... जन्नत की खुशबू..."
उसने आव देखा न ताव, उस गाजर को—जो अभी कुछ पल पहले कामिनी के चुत के अंदर थी—चाटना शुरू कर दिया।
चप... चप...
उसने एक बड़ा बाइट लिया और चबाने लगा।
"साला... ऐसी नमकीन और रसीली गाजर तो जिन्दगी में नहीं खाई... क्या स्वाद है..."
उस गंध और स्वाद ने शराबी के दिमाग पर असर कर दिया। उत्तेजना में उसने अपनी लुंगी का पल्ला फिर से उठा दिया।
उसका 'काला नाग' (लंड) जो दिन में सो रहा था, अब पूरी तरह जाग चुका था।
विशाल, काला, और अकड़ा हुआ। नसों से भरा हुआ मूसल।
वह अपनी मुठ्ठी में उसे पकड़कर जोर-जोर से हिलाने लगा।
ऊपर खिड़की की आड़ में खड़ी कामिनी की नज़रें फिर से उसी जगह जाकर चिपक गईं।
उसके पति का छोटा लंड और वह बेजान गाजर अब उसके दिमाग से निकल चुके थे।
उसकी आँखों के सामने सिर्फ़ वो 'दानव' था जो नीचे अंधेरे में अपना फन उठाए खड़ा था।
कामिनी ने अनजाने में अपना हाथ फिर से अपनी गीली चूत पर रख दिया, वो उस तिकोने हिस्से को सहलाने लगी, एक अजीब सा मजा, एक मदहोशी सी गुदगुदी पुरे जिस्म मे चढ़ गई.
कामिनी नीचे सर झुकाये, नीचे शराबी को लंड हिलता देख रही थी. और एक नजर अपने शराबी पति को बिस्तर पर पड़ा हुआ.
शराब शराब मे भी कितना अंतर होता है.
अंधेरा था कुछ साफ नजर तो नहीं आ रहा था, लेकिन जिस हिसाब से हाथ आगे जा कर पीछे आता उस हिसाब से लंड की लम्बाई का जायजा कामिनी को हो ही गया था.
वो शराबी एक हाथ से चूतरस मे सनी गाजर को सूंघ के चबा रहा था, और दूसरे हाथ से अपने लंड को मसल रहा रहा.
जब जब शराबी उस गाजर को काटता कामिनी अपनी चुत को जोर से दबा देती, एक रस बहार को छलक पड़ता.
ईईस्स्स...... उउउफ्फ्फ.... आअह्ह्ह..... कामिनी सिसकार उठी.
तभी शराबी को कुछ महसूस हुआ, उसने सर ऊपर उठा कर देखा....
शायद उसके कानो ने कामुक सिस्कारी को महसूस कर लिया था.
कामिनी तुरंत खिड़की से हट कर बिस्तर पर जा लेटी रमेश के बगल मे,  वो खर्राटे भर रहा था.
कामिनी सम्पूर्ण नंगी दोनों जांघो के बीच हाथ दबाये, खुद से ही लड़ रही थी.

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रात जैसे-तैसे गुज़री। कामिनी की आँखों में नींद कम और दहशत ज्यादा थी। उसकी जांघों के बीच अभी भी उस 'गाजर' की रगड़ का मीठा-मीठा दर्द था, और मन में खिड़की के नीचे खड़े उस 'काले नाग' की तस्वीर।
वह करवटें बदलती रही, कभी अपनी चूत सहलाती, तो कभी खुद को कोसती। 29732062 आखिर भोर होते-होते उसकी आँख लग गई।
सुबह की किरणें खिड़की से छनकर आ रही थीं।
रसोई में कुकर की सीटी बजी, तो मेरी (बंटी की) आँख खुली।
घर का माहौल बिलकुल सामान्य लग रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि इसी घर में कल रात इतना कुछ हुआ था।
मैं कमरे से बाहर निकला तो देखा पापा डाइनिंग टेबल पर अखबार पढ़ रहे थे और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। नहा-धोकर, सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने वो बिलकुल सभ्य इंसान लग रहे थे।
"गुड मॉर्निंग पापा," मैंने डरते-डरते कहा।
"गुड मॉर्निंग बेटा, उठ गया? बैठ नाश्ता कर ले," पापा ने मुस्कुराते हुए कहा।
मैं हैरान था। उनकी आँखों में नशा नहीं था, न ही चेहरे पर कल रात वाली वहशत। उन्हें कल रात का कुछ भी याद नहीं था—न वो मार-पिटाई, न वो गालियाँ, और न ही वो 'गाजर' वाला कांड।
तभी माँ किचन से पोहा लेकर आईं।
माँ ने एक साधारण सी कॉटन की साड़ी पहनी थी, लेकिन उनका चेहरा खिला हुआ था। शायद कल रात वीट (Veet) से की गई सफ़ाई और उस घर्षण ने उनके चेहरे पर एक अलग ही 'ग्लो' (Glow) ला दिया था।
पापा ने अखबार से नज़र हटाकर माँ को देखा।
"अरे कामिनी... आज तो बड़ी निखर रही हो? सुबह-सुबह नहा ली क्या? बड़ी सुंदर लग रही हो," पापा ने मुस्कुराते हुए कहा।
कामिनी के हाथ ठिठक गए। वह मन ही मन सिहर उठी।
'कैसा आदमी है ये?' उसने सोचा। 'रात को रंडी बोलता है, बाल नोचता है, जानवर की तरह बर्ताव करता है... और सुबह होते ही तारीफें? इसे याद भी नहीं कि कल रात इसने मेरे साथ क्या किया?'
माँ ने फीकी मुस्कान के साथ प्लेट टेबल पर रखी, "जी, बस ऐसे ही... आप नाश्ता कीजिये।"
कामिनी जानती थी कि बहस करने का कोई फायदा नहीं। रमेश को अपनी शराब वाली हरकतों का रत्ती भर भी होश नहीं रहता था। यह उसकी रोज़ की कहानी थी—रात का राक्षस, दिन का देवता।
नाश्ता करके पापा ऑफिस के लिए तैयार होने लगे।
वो जूते पहन रहे थे कि उनकी नज़र घर के बाहर वाले छोटे से गार्डन (बगीचे) पर गई।
बरसात की वजह से वहाँ घास बहुत बढ़ गई थी। जंगली पौधे उग आए थे।
"कामिनी," पापा ने आवाज़ दी।
"जी?" माँ तौलिये से हाथ पोंछती हुई आईं।
"ज़रा देखो बाहर, कितना जंगल हो गया है। घास कितनी बढ़ गई है, मच्छर आते हैं। इसे साफ़ क्यों नहीं करवा देती?" रमेश ने झुंझलाते हुए कहा।
कामिनी के दिल की धड़कन बढ़ गई। 'जंगल' शब्द सुनते ही उसे अपनी जांघों के बीच का वो 'जंगल' याद आ गया जिसे उसने कल ही साफ़ किया था।
"मैं... मैं कहाँ बाहर जाती हूँ? और किससे कहूँ? माली तो कब का काम छोड़ गया," कामिनी ने धीरे से कहा। "आप ही किसी को बोल दीजिये ना।"
रमेश ने घड़ी देखी। "हम्म... ठीक है, देखता हूँ। कोई मिल जाए तो भेजता हूँ।"
रमेश अपना बैग उठाकर बाहर निकला।
घर के लोहे के गेट के बाहर, वही चबूतरा था जहाँ कल रात वो ड्रामा हुआ था।
रमेश ने गेट खोला तो देखा, एक आदमी वहां सीढ़ियों पर बैठा बीड़ी पी रहा था।
मैले-कुचैले कपड़े, बिखरे बाल, और चेहरे पर कई दिनों की दाढ़ी।
यह वही था। कल रात वाला शराबी। जिसने कामिनी की 'प्रसादी' गाजर खाई थी।
रमेश को देखते ही वो खड़ा हो गया। उसकी आँखें लाल थीं, शायद कल की उतर रही थी या आज की चढ़नी बाकी थी।
उसने हाथ फैला दिया।
"बाबूजी... माई-बाप... 50 रुपये दे दो... गला सूख रहा है," उसकी आवाज़ फटी हुई और भारी थी।
रमेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। हट्टा-कट्टा शरीर था, बस शराब ने हालत खराब कर रखी थी।
रमेश वैसे भी कंजूस था। उसे लगा कि 50 रुपये फोकट में क्यों दूँ? इससे काम करा लेता हूँ।
"पैसे तो मिल जायेंगे," रमेश ने कड़क आवाज़ में कहा, "लेकिन फोकट का नहीं मिलेगा। काम करना पड़ेगा।"
शराबी ने उम्मीद भरी नज़रों से देखा, "क्या काम बाबूजी? जो बोलोगे कर दूंगा... बस बोतल का जुगाड़ कर दो।"
रमेश ने अंदर गार्डन की तरफ इशारा किया।
"वो देख, घास बढ़ गई है। पूरा साफ़ करना है। कुदाल-फावड़ा मैं दे दूंगा। करेगा?"
शराबी ने झांककर देखा। काम ज्यादा था, लेकिन तलब भी बड़ी थी।
"कर दूंगा साहब।"
"देख, 50 नहीं, पूरा 200 दूंगा। लेकिन काम चकाचक होना चाहिए। और सुन, साफ़-सफाई से रहना, घर में औरत-बच्चे हैं," रमेश ने अपनी 'सभ्य' हिदायत दी।
200 रुपये सुनकर शराबी की आँखों में चमक आ गई। 200 मतलब दो बोतल और साथ में चखना भी।
"जी मालिक... अभी कर दूंगा... लोहा बना दूंगा साफ़ करके," उसने गमछे से मुँह पोंछा।
रमेश खुश हो गया। सस्ता मजदूर मिल गया। उसे क्या पता था कि वह 200 रुपये में सिर्फ़ गार्डन साफ़ करने वाले को नहीं, बल्कि अपनी पत्नी की 'प्यास' बुझाने वाले को घर के अंदर बुला रहा है।
"आ चल अंदर," रमेश ने गेट पूरा खोल दिया।
शराबी ने अपनी लुंगी ठीक की। वही लुंगी, जिसके नीचे कल रात कामिनी ने वो 'काला अजगर' देखा था।
वह लड़खड़ाते कदमों से, लेकिन एक अजीब सी अकड़ के साथ, रमेश के पीछे-पीछे घर की बाउंड्री में दाखिल हुआ।
"कामिनी... ओ कामिनी..." रमेश ने लॉन से ही आवाज़ लगाई।
कामिनी रसोई में थी। आवाज़ सुनकर बाहर बरामदे में आई।
"जी?"
"ये बंदा मिला है, इसे बता देना क्या-क्या साफ़ करना है। मैं ऑफिस निकल रहा हूँ, ये काम करके चला जायेगा," रमेश ने कहा और अपनी स्कूटर स्टार्ट करने लगा।
कामिनी की नज़र रमेश के पीछे खड़े उस आदमी पर गई।
धूप तेज थी, लेकिन कामिनी को लगा जैसे उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया हो।
उसका दिल एक पल के लिए रुक सा गया।
वह वही था।
वही शराबी।
उसने एक गंदी सी बनियान और चेकदार लुंगी पहनी थी। उसके बाज़ू (arms) धूप में तपकर काले और सख्त लग रहे थे।
और उसकी नज़रें...
जैसे ही रमेश मुड़ा, उस शराबी ने सर उठाकर सीधा कामिनी की आँखों में देखा।
उसकी आँखों में पहचान थी।
एक शैतानी मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई। उसने अपनी जीभ से अपने होंठों को ऐसे चाटा, जैसे उसे कल रात वाली 'गाजर' का स्वाद याद आ गया हो।
कामिनी का पूरा शरीर कांप गया। उसके पैरों के बीच, साड़ी के अंदर, उसकी चिकनी चूत ने तुरंत पानी छोड़ दिया।
पति ऑफिस जा रहा था, और घर में वह उस जंगली मर्द के साथ अकेली रहने वाली थी जिसने उसे नंगा देखा था।
रमेश स्कूटर लेकर निकल गया।
अब घर के गार्डन में सिर्फ़ दो लोग थे—एक सहमी हुई प्यासी कामिनी, और दूसरा वो भूखा भेड़िया।
और बीच में था... जंगल, जिसे 'साफ़' करना था।
Contd......


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