अपडेट -4
पापा के जाने के बाद घर में अजीब सी शांति थी, लेकिन यह शांति तूफ़ान से पहले वाली थी।
मैं (बंटी) तैयार होकर अपने कमरे में बैठा था, लेकिन स्कूल जाने की हिम्मत नहीं हुई। पेट दर्द का एक झूठा बहाना बनाया और बिस्तर पकड़ लिया। पापा को तो वैसे भी मेरी फिक्र कम ही रहती थी, वो मान गए थे। लेकिन मेरा असली मकसद पेट दर्द नहीं, बल्कि वो 'दर्द' देखना था जो मेरी माँ की आँखों में कल रात से तैर रहा था।
रघु (वो शराबी) गार्डन में काम शुरू कर चुका था।
धूप चढ़ने लगी थी। रघु ने अपनी बनियान उतार कर एक पेड़ की टहनी पर टांग दी थी। उसका शरीर काला था, मैला था, लेकिन गठीला था। पसीने की बूंदें उसके काले बदन पर ऐसे चमक रही थीं जैसे किसी ने तेल लगा दिया हो।
रसोई की खिड़की से माँ उसे चोरी-चोरी देख रही थीं।
कामिनी की हालत 'कशमकश' वाली थी। एक तरफ वो संस्कारी पत्नी, जो पराये मर्द की परछाई से भी दूर रहती है, और दूसरी तरफ एक अतृप्त औरत, जिसके अंदर कल रात की जगी हुई आग अभी भी धधक रही थी।
प्यासी औरत को एक काला कलूटा, मेला कुचला आदमी भी सुंदर लगता है, इसका ताज़ा उदाहरण कामिनी थी.
वैसे भी मर्दो की खूबसूरती उसकी मर्दानगी मे होती है, जो रघु मे मिल गई थी कामिनी को.
उसका जिस्म रसोई मे था लेकिन दिमाग़ गार्डन मे.
रघु कुदाल चला रहा था। हर वार के साथ उसकी पीठ की मांसपेशियां (muscles) तन जाती थीं।
कामिनी जब भी उसे देखती, उसकी जांघों के बीच एक मीठी सिहरन दौड़ जाती। उसे बार-बार अपनी चिकनी, बाल रहित चूत का ख्याल आ रहा था जो साड़ी के अंदर पसीने और अपनी ही नमी से गीली हो रही थी।
करीब एक घंटे बाद, रघु खिड़की के पास आया।
"मालकिन..." उसने आवाज़ दी।
कामिनी चौंक गई। उसने पल्लू ठीक किया और खिड़की के पास आई।
"कक्क...क्या है?" उसने कड़क आवाज़ बनाने की कोशिश की, पर गला सूख रहा था।
रघु की आँखों में एक अजीब सा नशा था, उसकी नजर कामिनी के ब्लाउज के बीच बनी पसीने से भीगी दरार पर चली गई, वो कामिनी के भीगे हुए ब्लाउज को घूर रहा था।
"मालकिन... गला सूख रहा है... थोड़ी 'ताकत' मिल जाती तो काम जल्दी निपट जाता," रघु ने दांत निपोरते हुए कहा।
"पानी लाती हूँ," कामिनी मुड़ी।
"पानी नहीं मालकिन," रघु ने बेशर्मी से कहा,
"बाबूजी शाम को पैसे देने की बात बोल कर गए थे... पर अगर आप 100 रुपये अभी दे देतीं, तो मैं 'दवाई' ले आता। बिना दवाई के हाथ नहीं चल रहे।"
कामिनी समझ गई कि उसे दारू चाहिए।
उसका दिल किया कि मना कर दे, डांट दे।
लेकिन वो रघु की आँखों में देख कर पिघल गई। रघु वाकई थका हुआ दयनीय हालात मे दिख रहा था,
कामिनी ने बिना कुछ बोले पर्स से 100 का नोट निकाला और ग्रिल से बाहर पकड़ा दिया।
रघु ने नोट लेते वक़्त जानबूझकर अपनी खुरदरी उंगलियां कामिनी की मखमली हथेली से रगड़ दीं।
कामिनी का हाथ झनझना गया, लेकिन उसने हाथ खींचा नहीं।
"अभी आता हूँ मालकिन... फिर देखना कैसा काम करता हूँ," रघु नोट चूमता हुआ गेट से बाहर भाग गया।
कामिनी उस मस्तमोला को सिर्फ देखती रह गई.


रघु करीब आधे घंटे बाद लौटा। उसकी चाल में अब लचक आ गई थी।
लालच बुरी बला है। 100 रुपये में दो देसी क्वार्टर आ गए थे और रघु ने दोनों गटक लिए थे। खाली पेट शराब ने अपना काम कर दिया था।
धूप अब सिर पर थी। रघु ने कुदाल उठाई, दो-चार बार ज़मीन पर मारी, लेकिन नशा उस पर हावी हो गया।
उसे चक्कर आने लगे।
वह गार्डन में लगे पुराने जामुन के पेड़ की छांव में बैठ गया। ठंडी हवा और नशा... रघु की आँखें बंद होने लगीं। कुछ ही पलों में वह वहीं, पेड़ के तने से टेक लगाकर पसर गया। उसके खर्राटे गूंजने लगे।
दोपहर के 1:30 बज रहे थे।
कामिनी ने देखा कि कुदाल चलने की आवाज़ बंद हो गई है।
"कहीं भाग तो नहीं गया कामचोर?" उसने सोचा।
लेकिन मन के किसी कोने में एक और आवाज़ थी—'जाकर देख न कामिनी... वो कर क्या रहा है।'
कामिनी ने बहाना ढूंढा। 'बेचारा भूखा होगा, सुबह से लगा है।'
उसने एक थाली में दो रोटियां और थोड़ी सब्जी रखी।
"मैं उस मजदूर को खाना दे आऊं," उसने खुद से (और शायद बंटी को सुनाने के लिए) कहा और पीछे के दरवाजे से गार्डन में निकली।
मैं (बंटी) अपने कमरे की खिड़की से, जो गार्डन की तरफ ही खुलती थी, सब देख रहा था। माँ के हाथ में थाली थी, लेकिन चाल में एक चोरों वाली सावधानी थी।
कामिनी दबे पाँव पेड़ के पास पहुँची।
वहाँ का नज़ारा देखकर वह ठिठक गई।
रघु बेसुध पड़ा था। उसका मुंह खुला था, और मख्खियां भिनभिना रही थीं। वह पूरी तरह नशे में 'टल्ली' होकर सो रहा था।
कामिनी ने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। सन्नाटा था।
उसकी नज़र रघु के शरीर पर घूमने लगी। पसीने से भीगी बनियान, मैली लुंगी...
और फिर उसकी नज़र रघु की लुंगी के उस उभार पर अटक गई। असली खूबसूरती वही तो थी,
रघु ने दोनों पैर फैला रखे थे। लुंगी घुटनों तक ऊपर चढ़ी हुई थी।
और बीच में... जांघों के संगम पर... लुंगी तंबू की तरह तनी हुई थी।
कामिनी का दिल हथौड़े की तरह बजने लगा। थाली उसके हाथ में कांपने लगी। उसने थाली को धीरे से घास पर रख दिया।
यह वही मौका था जिसका वह कल दोपहर से इंतज़ार कर रही थी।
कल उसने उसे खिड़की से देखा था—दूर से, धुंधला सा।
आज वह उसके कदमों में पड़ा था। सोता हुआ। बेखबर।
कामिनी के दिमाग ने कहा—'भाग जा यहाँ से कामिनी... ये पाप है... ये पागलपन है।'
लेकिन उसके जिस्म ने कहा—'बस एक बार देख ले... जी भरकर देख ले... फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा।'
कौन देख रहा है तुझे यहाँ, कामिनी ने चोर नजरों से एक बार इधर उधर देखा, कोई नहीं था, बंटी भी सो ही रहा है.
हवस जीत गई। ना जाने इतनी हिम्मत कामिनी मे कैसे आ गई..
मै खिड़की के पीछे से छुपा माँ की हरकतों को देख रहा था,
ये वही औरत थी जो रात मे पापा के सामने किसी बकरी की तरह मिमियाती थी, मार खाती थी.
और दिन के उजाले मे..... ऊफ्फफ्फ्फ़.... मै सोच भी नहीं पा रहा था.
और मेरी माँ करने का सोच रही थी.
कामिनी घुटनों के बल रघु के पास बैठ गई। उसके नथुनों में रघु के पसीने और शराब की तीखी गंध भर गई, जिसने उसे और मदहोश कर दिया।
उसका हाथ कांपते हुए आगे बढ़ा।
उसकी गोरी, नाजुक उंगलियों ने रघु की मैली, चेकदार लुंगी का किनारा पकड़ा।
सांसें अटक गईं। धाड़... धाड़.... कर दिल बज रहा था, जैसे अभी कलेजा फट जायेगा, उसका पूरा जिस्म पसीना पसीना हो गया, हाँथ कांप रहे थे, जांघो मे वजन उठाने लायक ताकत नहीं थी..
बस दिल मे उठती कामइच्छा ने उसको इतनी मजबूती दे दि थी, की वो अपनी खुवाहिस पूरी कर ले.
उसने धीरे... बहुत धीरे से लुंगी को ऊपर उठाना शुरू किया।
जैसे-जैसे कपड़ा हट रहा था, राज खुल रहा था।
काली, बालों से भरी जांघें... और फिर...
कामिनी की आँखें फटी की फटी रह गईं। उसके मुंह से एक मूक चीख निकली, जिसे उसने हाथ रखकर दबा लिया।
सामने एक अजूबा पड़ा था।
एक विशाल, काला, और नसों से भरा हुआ मांस का खंभा।
रमेश का लंड तो इसके सामने किसी बच्चे की उंगली जैसा लगता।
यह लंड नहीं, एक मूसल था। उसका सुपारी (top) किसी मशरूम की तरह बड़ा और बैंगनी रंग का था। पूरा लंड मोटी-मोटी नसों के जाल से घिरा था, जो देखने में ही भयानक और ताकतवर लग रहा था।
वह रघु की बाईं जांघ पर किसी सुस्त अजगर की तरह लेटा हुआ था।
कामिनी सम्मोहित (Hypnotized) हो गई थी। उसका जिस्म किसी मूर्ति मे तब्दील हो गया, बस सांस आ रही थी यही सबूत था उसके जिन्दा होने का.
उसे यकीन नहीं हो रहा था कि एक इंसान के पास इतना बड़ा हथियार हो सकता है।
'ये... ये अंदर कैसे जाएगा?' यह पहला सवाल था जो उसके दिमाग में आया।
लेकिन डर के साथ-साथ, उसकी चूत ने अपना जवाब दे दिया।
पच... पिच... च... च....
कामिनी की चिकनी चुत ने पानी की एक धार छोड़ दी। वह इतनी गीली हो गई थी कि उसे लगा उसका पेटीकोट अभी भीग जाएगा।
वह एकटक उस काले अजूबे को निहारती रही। उसका मन कर रहा था कि उसे छू ले... बस एक बार छूकर देखे कि क्या यह सच में इतना सख्त है? असली है?
उसका हाथ, उसके काबू से बाहर होकर, उस काले नाग की तरफ बढ़ने लगा...
और मैं... बंटी... अपनी खिड़की के पीछे खड़ा, अपनी माँ को एक गंदे शराबी की लुंगी हटाकर उसका लंड घूरते हुए देख रहा था। मेरा गला सूख गया और मेरा अपना पजामा तंग होने लगा था।
माँ की हरकतों ने मेरे जिस्म मे एक अजीब सी गुदगुदी भर दी, मैंने अपने लंड को अपने हाथो से कस कर पकड़ लिया.
********************
गार्डन में सन्नाटा था, लेकिन कामिनी के कानों में तूफ़ान चल रहा था।
उसका हाथ, जो अब तक हवा में कांप रहा था, आखिर उस 'काले अजूबे' तक पहुँच ही गया।
जैसे ही कामिनी की मखमली, गोरी उंगलियों ने रघु के उस विशाल, काले लंड को छुआ, उसे लगा जैसे उसने किसी नंगी बिजली की तार को छू लिया हो।
झुरझरी.... एक तेज़ झुरझरी उसके पूरे बदन में, उसकी एड़ियों से लेकर सिर के बालों तक दौड़ गई।
वह गर्म था। बहुत गर्म।
एक इंसान का मांस इतना सख्त और लोहे जैसा कैसे हो सकता है?
कामिनी की धड़कनें रुक सी गई थीं। डर था, पर जिज्ञासा (Curiosity) उस पर हावी थी।
उसने अपनी उंगलियां उस काले मूसल पर फेरना शुरू किया। उसकी त्वचा खुरदरी थी, उस पर उभरी हुई नसें किसी रस्सियों जैसी लग रही थीं।
कामिनी ने हिम्मत करके अपनी मुट्ठी भींची। वह उसे नापना चाहती थी।
लेकिन...
उसकी नाजुक मुट्ठी उस विशाल औज़ार के सामने बहुत छोटी पड़ गई।
उसने अपनी उंगलियां और अंगूठा मिलाकर घेरा बनाने की कोशिश की, लेकिन रघु का लंड इतना मोटा था कि उसकी उंगलियां आपस में मिल ही नहीं पाईं।
"हे भगवान... यह तो मेरी मुट्ठी में भी नहीं समा रहा," कामिनी ने मन ही मन सोचा।
उसने रमेश के लंड को याद किया, जो उसकी एक मुट्ठी में छुप जाता था। और यहाँ... यह 'दानव' उसकी पकड़ से बाहर था।
कामिनी सम्मोहन (Hypnotized) की अवस्था में थी। उसकी सांसें भारी हो गई थीं। अनजाने में उसका हाथ उस गर्म मांस को हल्के-हल्के सहलाने लगा। उसे वो गर्माहट अपनी हथेली में महसूस करके एक अजीब सा सुकून मिल रहा था।
वह भूल गई कि वह कहाँ है, कौन है।
लेकिन तभी...
शायद उस स्पर्श की उत्तेजना नींद में भी रघु के दिमाग तक पहुँच गई थी।
रघु, जो अब तक बेसुध था, अचानक हरकत में आया।
उसने नींद में ही बड़बड़ाते हुए अपना हाथ चलाया—जैसे कोई कीमती चीज़ छिन जाने के डर से उसे कसकर पकड़ना चाहता हो।
और उसका खुरदुरा, सख्त हाथ सीधा कामिनी के उस हाथ पर जा पड़ा जो उसके लंड को पकड़े हुए था।
"अम्मम्म..." रघु ने नींद में हूँकार भरी और कामिनी की कलाई को कसकर दबोच लिया।
कामिनी का खून जम गया।
"ह्ह्ह्क..." उसके गले से आवाज़ ही नहीं निकली।
उसकी कलाई एक लोहे की पकड़ में थी, और उसका हाथ एक पराए मर्द के लंड पर था।
एक पल के लिए उसे लगा कि उसकी दुनिया खत्म हो गई। अगर रघु अभी आँख खोल ले? अगर कोई देख ले?
दहशत ने उसके दिमाग के सुन्न पड़े तारों को झकझोर दिया।
"छोड़... छोड़..." कामिनी ने झटके से अपना हाथ खींचना चाहा।
रघु की पकड़ नींद में ढीली थी, लेकिन कामिनी के लिए वह मौत की पकड़ जैसी थी।
उसने अपनी पूरी जान लगाकर, एक झटके से अपना हाथ छुड़ाया।
उसका हाथ छूटते ही वह पीछे की तरफ गिरी, लेकिन संभल गई।
रघु ने करवट बदली और फिर से खर्राटे लेने लगा। उसने आँखें नहीं खोली थीं।
कामिनी की जान में जान आई, लेकिन वह अब एक पल भी वहाँ रुक नहीं सकती थी।
उसके पैरों में न जाने कहाँ से बिजली जैसी फुर्ती आ गई। वह अपनी चप्पल हाथ में उठाकर नंगे पैर ही घर के अंदर भागी।
साँस फूली हुई थी, चेहरा लाल था, और दिल मुँह को आ रहा था।
वह दौड़ते हुए सीधे अपने बेडरूम में घुसी और दरवाज़ा बंद करके वहीं धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ी।
कमरा ठंडा था, पंखा चल रहा था, लेकिन कामिनी पसीने से लथपथ थी।
वह चित लेटी हुई थी, छत को घूर रही थी। उसकी छाती लोहार की धौंकनी की तरह ऊपर-नीचे हो रही थी।
साड़ी दौड़ते वक़्त ऊपर चढ़ गई थी, जिससे उसकी नंगी, चिकनी जांघें हवा में थीं। ब्लाउज पसीने से चिपक गया था और उसकी भारी छाती को जैसे फाड़कर बाहर आने को तैयार थी। डर और उत्तेजना के उस अजीब मिश्रण से उसके निप्पल (Nipples) ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए पत्थर की तरह तन गए थे।
लेकिन उसका दिमाग... उसका दिमाग अब एक युद्ध का मैदान बन चुका था।
जैसे-जैसे सांसें सामान्य हो रही थीं, वैसे-वैसे 'ग्लानि' (Guilt) का एक काला साया उसे घेर रहा था।
"छि... छि... छि... ये क्या किया मैंने?"
कामिनी ने अपने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया।
"मैं... मैं इतनी गिर गई? एक शराबी... एक मजदूर... और मैं उसका... उसका वो पकड़कर बैठी थी?"
उसकी आँखों से आंसू बह निकले। यह आंसू डर के नहीं, शर्मिंदगी के थे।
"मैं एक इज़्ज़तदार घर की बहू हूँ... एक 18साल के लड़के की माँ हूँ... रमेश जी की पत्नी हूँ... मेरे संस्कार कहाँ गए थे?"
वह अपनी उसी हथेली को देख रही थी जिसने अभी कुछ पल पहले उस काले लंड को छुआ था। उसे लग रहा था कि उसका हाथ गंदा हो गया है, अपवित्र हो गया है।
"अगर... अगर वो जाग जाता तो? अगर बंटी देख लेता तो? मैं किस मुँह से जीती?"
कामिनी का अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था। उसे खुद से घिन आ रही थी।
"रमेश जी ने सही कहा था... मैं रंडी हूँ क्या? नहीं... नहीं... मैं रंडी नहीं हूँ... मैं बस... मैं बस मजबूर थी..."
वह खुद को सफाई देने की कोशिश कर रही थी।
"रमेश जी मुझे प्यार नहीं करते... मुझे मारते हैं... मेरी ज़रूरतें नहीं समझते... लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं किसी गैत मर्द की लुंगी उठाकर..."
कामिनी ने गुस्से और शर्म में अपनी जांघों को अपने नाखूनों से नोच लिया।
"पाप किया है मैंने... घोर पाप।"
वह रो रही थी, सिसक रही थी। उसका 'सती-सावित्री' वाला रूप अब जाग गया था और उस 'प्यासी औरत' को कोड़े मार रहा था।
लेकिन...
इस भारी ग्लानि और पछतावे के बीच भी, एक सच ऐसा था जिसे वह झुठला नहीं पा रही थी।
उसका जिस्म।
उसका दिमाग चाहे जितना रो रहा हो, लेकिन उसका जिस्म अभी भी उस स्पर्श को याद करके मज़े ले रहा था।
उसकी चूत, जो अभी भी गीली और लिसलिसी थी, उसे बता रही थी कि जो हुआ, उसमें 'डर' था, 'पाप' था... लेकिन 'मज़ा' भी सबसे ज्यादा उसी में था।
उसकी तनी हुई छाती और जांघों के बीच की धड़कन गवाही दे रही थी कि 'कामिनी' भले ही पछता रही हो, लेकिन उसके अंदर की 'मादा' उस काले लंड की गर्मी को अब और शिद्दत से महसूस कर रही है।
वह बिस्तर पर पड़ी तड़प रही थी—आधी शर्म से, और आधी उस अधूरी प्यास से जो अब भड़क कर ज्वालामुखी बन चुकी थी।
क्रमशः



0 Comments