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मेरी माँ कामिनी -6

मेरी माँ कामिनी, अपडेट -6 


दोपहर की उमस और मानसिक थकान ने कामिनी को पूरी तरह से तोड़कर रख दिया था। वह अपने बेडरूम में बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ी थी। पंखा धीमी रफ़्तार से चल रहा था, लेकिन कामिनी के जिस्म की गर्मी शांत नहीं हुई थी।
वह गहरी नींद में थी—एक ऐसी नींद जो नशे जैसी थी।
बेखबर कि उसका बदन किस हाल में है। करवट लेते वक़्त उसकी सूती साड़ी घुटनों से सरक कर काफी ऊपर, उसकी जांघों के संगम तक चढ़ गई थी। ब्लाउज का पल्लू एक तरफ ढलक गया था, जिससे उसकी भारी-भरकम छाती का एक बड़ा हिस्सा और ब्लाउज के कपड़े को चीरते हुए तने हुए निप्पल्स की रूपरेखा साफ नज़र आ रही थी।
पसीने में भीगा उसका बदन, एक सोती हुई रति की मूरत लग रहा था—मादक, भरा हुआ और पूरी तरह से असुरक्षित।

न जाने कितना वक्त गुजरा था कि खिड़की पर एक खटखटाहट हुई।
"मेमसाब... ओ मेमसाब..."
एक मर्दाना, भारी आवाज़ सन्नाटे को चीरती हुई आई।
कामिनी की नींद टूटी। वह हड़बड़ा कर पलटी। उसकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं।
उसने गर्दन घुमाकर खिड़की की तरफ देखा।
जाली के उस पार रघु खड़ा था। उसके हाथ में वो खाली थाली थी जो कामिनी ने दोपहर में उसे दी थी।
लेकिन रघु की नज़रें थाली पर नहीं थीं।
उसकी आँखें तो कहीं और ही दावत उड़ा रही थीं।
रघु टकटकी लगाए कामिनी के उस अस्त-व्यस्त, आधे नंगे जिस्म को घूर रहा था। उसकी लाल, नशीली आँखों में कामिनी की नंगी, गोरी चिकनी जांघें और खुले हुए ब्लाउज की गहराई कैद हो रही थी।
उसकी नजरों में सिर्फ़ हवस नहीं थी, बल्कि एक अजीब सा 'हक' था, जैसे वह अपनी ही किसी चीज़ को निहार रहा हो।
कामिनी को होश आने में एक पल लगा। जैसे ही उसे अहसास हुआ कि रघु की नज़रें कहाँ गड़ी हैं, उसके बदन में 440 वोल्ट का करंट दौड़ गया।
"ह्ह्ह..." उसके मुंह से एक दबी हुई चीख निकली।
"तुम... तुम कब से..." शब्द उसके गले में ही अटक गए।
उसने झपटकर, बिजली की फुर्ती से अपनी साड़ी नीचे खींची और पल्लू से अपनी छाती को कसकर ढक लिया। शर्म और घबराहट से उसका चेहरा लाल टमाटर हो गया।
"बेशर्म... उधर मुड़ो..." कामिनी फुसफुसाई।
रघु ने तुरंत नज़रें नहीं हटाईं। एक पल के लिए उसने कामिनी की आँखों में देखा और उसके होंठों पर एक बहुत ही महीन, शरारती मुस्कान तैर गई।
"माफ़ करना मेमसाब... प्यास लगी थी, गला सूख रहा था, सोचा आवाज़ दे दूँ," रघु ने सफाई दी, लेकिन उसकी आवाज़ में 'गला सूखने' का मतलब कुछ और ही लग रहा था।
कामिनी का दिल हथौड़े की तरह बज रहा था।
'हे भगवान, यह कितनी देर से खड़ा था? इसने क्या-क्या देखा? कहीं इसने मुझे नींद में बड़बड़ाते तो नहीं सुना?'
वह कांपते पैरों से बिस्तर से उतरी।
"रुक... रुको, पानी लाती हूँ।"
वह भागकर कमरे से बाहर निकली। ऐसा लगा जैसे वह रघु की नजरों से नहीं, बल्कि अपनी ही नग्नता से भाग रही हो।
रसोई में जाकर उसने एक साथ दो गिलास ठंडा पानी पिया। अपनी सांसों को काबू में किया। शीशे में अपने बिखरे बाल ठीक किए, साड़ी को कसकर बांधा और एक जग पानी लेकर बाहर बरामदे की ओर चली। उसे खुद को याद दिलाना पड़ा कि वह मालकिन है और वो एक मामूली मजदूर।
शाम के 5 बज चुके थे। सूरज ढल रहा था और हवा में थोड़ी ठंडक आ गई थी।
रघु बरामदे की सीढ़ियों पर बैठा गमछे से हवा कर रहा था।
कामिनी ने उसे पानी का गिलास दिया। रघु ने बिना गिलास को होठों से लगाए, ऊपर से ही पानी गटक लिया। पानी की बूंदें उसकी ठोड़ी से होकर उसके गले और छाती पर गिर रही थीं। कामिनी की नज़र अनचाहे ही उसकी मजबूत गर्दन पर टिक गई।
पानी पीकर रघु ने "आह्ह्ह" की आवाज़ निकाली।
कामिनी ने खुद को सख्त किया।
"काम कितना हुआ?" उसने कड़क आवाज़ में पूछा, "पूरा गार्डन साफ़ हो गया?"
रघु ने खाली गिलास नीचे रखा और मासूमियत का नाटक करते हुए सिर झुका लिया।
"वो... वो मेमसाब... माफ़ कर दो। काम पूरा नहीं हुआ।"
"क्या? तो तुम इतनी देर क्या कर रहे थे? 200 रुपये दिहाड़ी तय हुई थी न?" कामिनी ने डांटा।
"वो... खाना खाने के बाद आँख लग गई थी मेमसाब। नशा थोड़ा ज्यादा हो गया था, और आपकी दी हुई रोटियां इतनी मीठी थीं कि नींद आ गई," रघु ने दबी आवाज़ में कहा।
कामिनी को गुस्सा आना चाहिए था, लेकिन उसे अजीब सी राहत मिली।
'शुक्र है... इसका मतलब यह दोपहर भर सो रहा था। इसे वो बात याद नहीं होगी जब मैंने...'
कामिनी ने चैन की सांस ली। लेकिन उसके मन में चोर था।
"साहब आएंगे तो बहुत डांटेंगे। उन्हें काम पूरा चाहिए था। वो बहुत गुस्सा करते हैं," कामिनी ने पति का डर दिखाया।
रघु ने अचानक सिर उठाया और सीधा कामिनी की आँखों में देखा।
उसने कामिनी के चेहरे पर अपने पति के प्रति खौफ को साफ़ पढ़ लिया था।
"मेमसाब, आप मालिक को कुछ मत बोलना... प्लीज," रघु की आवाज़ में एक अजीब सा अपनापन था, "वो मेरी दिहाड़ी काट लेंगे। मैं वादा करता हूँ, कल सुबह आकर पक्का पूरा काम कर दूंगा।"
फिर रघु थोड़ा आगे झुका, उसकी आँखों में एक चमक थी।
"कसम से मेमसाब... कल आपका पूरा 'जंगल' साफ़ कर दूंगा... एक तिनका भी नहीं छोड़ूँगा।"
रघु ने 'जंगल' शब्द पर इतना जोर दिया और उसकी नज़र एक पल के लिए कामिनी की नाभि से नीचे की तरफ फिसली, कि कामिनी समझ गई—यह सिर्फ़ घास-फूस की बात नहीं कर रहा।
कामिनी सिहर उठी, लेकिन कुछ बोल नहीं पाई।
"इतनी शराब क्यों पीते हो कि काम का होश न रहे?" कामिनी ने बात बदलते हुए पूछा। वह उस माहौल को हल्का करना चाहती थी।
रघु शांत हो गया। उसकी नशीली आँखों में अचानक एक गहरा सन्नाटा छा गया।
"आदत लग गई है मेमसाब... क्या करें," रघु ने दूर आसमान की तरफ देखा, जहाँ सूरज डूब रहा था।
"शौक नहीं है... बस भुलाई नहीं भूलती वो पुरानी बातें।"
"क्या मतलब?" कामिनी की जिज्ञासा जाग उठी।
उसी वक्त, घर के अंदर अपने कमरे में, बंटी कान लगाए यह सब सुन रहा था।
"मेरी भी एक गृहस्थी थी मेमसाब... गाँव में," रघु ने भारी आवाज़ में कहा, "मैं किशनगंज गांव का रहने वाला हूँ। एक बीवी थी... सुगना नाम था उसका।"
उसने कामिनी की तरफ देखा, "बिलकुल आप ही की तरह सुंदर थी। गोरी, भरी-पूरी, और संस्कारी।"
रघु की नज़रें कामिनी के जिस्म पर फिसलीं, लेकिन इस बार उसमें हवस से ज्यादा एक 'दर्द' और 'याद' थी।
"फिर?" कामिनी ने धीरे से पूछा।
"फिर क्या... एक आंधी आई, शहर से। उसने मेरा हंसता-खेलता परिवार तबाह कर दिया," रघु की मुट्ठी भिंच गई, उसके माथे की नसें तन गईं।
"मेरी सुगना गर्भवती थी... 7 महीने का पेट था। वो मरी, और उसके साथ मेरा आने वाला बच्चा भी मर गया।"
रघु की आवाज़ भर्रा गई, "मैं अकेला रह गया। उस अकेलेपन को काटने के लिए बोतल का सहारा ले लिया। अब तो बस... लाश हूँ, चल रहा हूँ।"

कामिनी सन्न रह गई।
उसे इस शराबी, कामचोर और बेशर्म आदमी के अंदर अचानक एक टूटा हुआ इंसान दिख गया। एक अकेला मर्द, जो अपनी बीवी को आज भी इतना चाहता है।
कामिनी का दिल पिघल गया।

 उसे अपनी जिंदगी याद आ गई। उसका पति ज़िंदा था, सामने था, लेकिन उसके लिए पति होना ना होना एक ही बात थी, रमेश ने कभी उसे इतना प्यार नहीं दिया जितना यह शराबी अपनी मरी हुई बीवी को याद करके दे रहा था।

दोनों का दर्द एक जैसा था—अकेलापन और एक साथी की भूख।

"हम्म..." कामिनी ने साड़ी का पल्लू ठीक किया, उसकी आवाज़ अब नरम हो चुकी थी, "ठीक है... मैं साहब से कह दूंगी कि काम कल पूरा होगा। तुम जाओ अब।"
रघु खड़ा हुआ। उसने अपनी लुंगी ठीक की।
"मेहरबानी मेमसाब... आप बहुत अच्छी हैं। बिलकुल मेरी 'सुगना' जैसी," रघु ने जाते-जाते एक आखिरी भावनात्मक तीर चलाया।
"वो.. वो.... 100rs और मिल जाते तो " रघु ने खुसमद करतर हुए कहाँ.
कामिनी को समझते देर ना लगी, ये सब नाटक इस 100 रुपये के लिए था.
फिर भी कामिनी ने बिना कुछ बोले पर्स से 100 रूपए निकाल दे दिए.
रघु की मानो लाटरी लग गई हो, उसने झट से पैसे लपक लिए.

वह गेट की तरफ बढ़ा, फिर रुका और मुड़ा, लेकिन फिर आगे को चल दिया, जैसे कुछ कहना चाहता हो, फिर जरुरी ना समझा.


रघु गेट से बाहर निकल गया, लड़खड़ाता हुआ।
कामिनी वहीं खड़ी उस अजीब इंसान जाते हुए देखती रही। कैसे कैसे आदमी है इस दुनिया मे हुम्म्मफ्फ्फ्फफ्फ्फ़..... कामिनी ने एक भरी सांस छोडी.
शाम हो चुकी थी, खाना बनाना था, उसका लक्ष्य रसोई थी.

एक शराबी ने उसे अपनी बीवी का दर्जा दिया था, और उसके अपने पति ने उसे 'रंडी' कहा था। यह तुलना कामिनी के दिमाग में घर कर गई।
अब रघु उसके लिए सिर्फ़ एक मजदूर नहीं था, बल्कि एक हमदर्द भी बन रहा था।

वही दूसरी तरह, 
बंटी, जो दीवार के पीछे खड़ा सुन रहा था, उसका दिमाग 'किशनगंज' नाम सुनते ही झनझना उठा,
यह नाम... यह गाँव... उसने पहले सुना था। कहाँ सुना था, याद नहीं आ रहा था.
वो छत पर टहलने निकल गया, माँ रसोई मे खाना बना रही थी, 
थोड़ी ही देर मे बचपन की एक धुंधली याद उसके दिमाग में कौंध गई।
जब उसके दादाजी ज़िंदा थे,
उसे याद आया, जब वह 10 साल का था, दादाजी ने रमेश (पापा) को डांटते हुए कहा था— "तूने किशनगंज में जो किया रमेश, उसकी सजा तुझे नरक में मिलेगी... तूने उस परिवार को बर्बाद कर दिया..."
बंटी का माथा ठनक गया।
लाख चाह कर भी उसे अपने दादा की आगे की बात याद नहीं आ रही थी, बस इतना याद था दादा जी पापा को डांट रहे थे.
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आज घर का माहौल उम्मीद से बिलकुल उलट था।
रात के 9 बज रहे थे और रमेश घर आ चुका था। हालांकि उसकी चाल में हल्का लड़खड़ाना था और मुंह से शराब की वही चिर-परिचित बदबू आ रही थी, लेकिन उसका मूड 'शांत' था। उसने आते ही गाली-गलौज नहीं की, बल्कि चुपचाप सोफे पर बैठ गया।
कामिनी को एक पल के लिए यकीन ही नहीं हुआ। क्या आज का सूरज पश्चिम से निकला है?
उसने जल्दी से खाना लगाया।
डाइनिंग टेबल पर आज तीनों साथ थे—रमेश, कामिनी और बंटी।
सन्नाटा था, जिसे बंटी ने तोड़ा। उसने अपनी माँ की तरफ एक नज़र देखा और फिर हिम्मत करके बोला।
"पापा..."
"हूँ? बोल," रमेश ने दाल-चावल का कोर मुंह में डालते हुए कहा।
"पापा, मुझे एक स्कूटर दिला दीजिये ना। स्कूल दूर है, और कभी-कभी मम्मी को लेकर मार्किट भी जाना पड़ता है। ऑटो में... ऑटो में बहुत दिक्कत होती है," बंटी ने चोर नज़रों से कामिनी को देखा।
कामिनी समझ गई कि बंटी ऑटो वाली घटना की तरफ इशारा कर रहा है। वह झेंप गई और नज़रे झुका लीं।
रमेश ने एक पल के लिए खाना रोका। उसने बंटी को देखा।
"हम्म... बात तो सही है। तू बड़ा हो रहा है," रमेश ने बिना किसी गुस्से के कहा, "ठीक है, अगले महीने देख लेंगे। ले देंगे स्कूटर।"
कामिनी और बंटी के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गई।
खाना शांति से निपट गया। 10 बज चुके थे।
रमेश का पेट भर चुका था, लेकिन उसकी 'आत्मा' प्यासी थी। खाने के बाद उसका नशा थोड़ा कम होने लगा था, जिसे 'टॉप-अप' करने की ज़रूरत थी।
"मैं ज़रा बाहर टहल कर आता हूँ," रमेश ने कहा और अपनी अलमारी से एक 'देसी क्वार्टर' निकाला जिसे उसने कपड़ों के नीचे छुपा रखा था।
वह बोतल लेकर पीछे के दरवाजे से गार्डन में निकल गया।
इधर कामिनी रिलैक्स होकर अपनी थाली लेकर खाने बैठी थी। बंटी अपने कमरे में जा चुका था। घर में शांति थी।
लेकिन यह शांति तूफ़ान से पहले की थी।
गार्डन में अंधेरा था। रमेश ने बोतल का ढक्कन खोला और एक ही सांस में, बिना पानी मिलाए, पूरा क्वार्टर घटक गया।
शराब की वह कड़वी, जलती हुई धार उसके गले से नीचे उतरी और सीधा दिमाग पर असर कर गई।
खाली बोतल फेंकते हुए उसकी नज़र अचानक सामने लॉन पर पड़ी।
चांदनी रात में बढ़ी हुई जंगली घास और झाड़ियां साफ़ चमक रही थीं।
"अरे..." रमेश की आँखें फैल गईं।
उसने सुबह ही तो 200 रुपये दिए थे साफ़-सफाई के लिए। लेकिन यहाँ तो एक तिनका भी नहीं हटा था। घास वैसी की वैसी खड़ी थी।
रमेश का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। शराब ने आग में घी का काम किया।
"मादरचोद... हरामखोर..." उसके हाथ-पैर गुस्से से कांपने लगे। 200 रुपये... उसकी गाढ़ी कमाई के 200 रुपये बर्बाद हो गए।
उसका खून खौल उठा।
वह आंधी की तरह घर के अंदर भागा।
कामिनी अभी खाने का पहला निवाला मुंह में ले ही रही थी कि पीछे से एक झटके ने उसकी गर्दन हिला दी।
"साली रंडी... मादरचोद..." रमेश चीखा।
उसने कामिनी के बाल अपनी मुट्ठी में जकड़ लिए और उसे कुर्सी से घसीटता हुआ बेडरूम की तरफ ले गया। थाली गिर गई, खाना फर्श पर बिखर गया।
"आह्ह्ह... क्या हुआ? छोड़िये... बाल टूट रहे हैं..." कामिनी चीख पड़ी।
"क्या हुआ? मुझसे पूछती है क्या हुआ?" रमेश ने उसे बेडरूम में ले जाकर बिस्तर पर नहीं, बल्कि नीचे फर्श पर पटक दिया।
"मैंने सुबह कहा था ना कि घास साफ़ करवा लेना... क्यों नहीं हुई? कहाँ गए वो 200 रुपये?"
"वो... वो मजदूर आया था... उसने कहा कल..."
"चुप साली झूठी!" रमेश ने एक लात कामिनी की कमर पर मारी।
"तुझे पता भी है 200 रुपये कहाँ से आते हैं? तेरे बाप का राज है क्या? हराम का पैसा है?"
रमेश हैवान बन चुका था। उसकी कंजूसी और नशा मिलकर पागलपन का रूप ले चुके थे।
"रंडी... तू अपनी चूत बेच के लाएगी क्या 200 रुपये? बोल साली... कहाँ से देगी मुझे पैसे?"
कामिनी फर्श पर पड़ी कांप रही थी।
खींचा-तानी में उसकी साड़ी खुल गई थी। ब्लाउज का हुक टूट चुका था। उसके सुडोल, भारी स्तन ब्रा से बाहर झांक रहे थे।
रमेश की नज़र अपनी पत्नी के नंगे होते जिस्म पर पड़ी।
गुस्से के बीच भी उसकी मरियल कामुकता जाग उठी।
"चल नंगी हो..." उसने हुक्म दिया, "आज तुझसे वसूलूंगा 200 रुपये... देखता हूँ तेरी इस चूत की कीमत कितनी है।"
आज एक पति अपनी पत्नी के जिस्म को रुपयों में तोल रहा था।
कामिनी हैरान थी। जो आदमी अभी एक घंटा पहले बेटे को स्कूटर दिलाने की बात कर रहा था, वह अचानक ऐसा जानवर कैसे बन गया?
"जल्दी कर साली..." रमेश ने एक और थप्पड़ उसके गाल पर रसीद दिया।
कामिनी ने रोते हुए अपनी साड़ी और पेटीकोट उतार दिया। वह पूरी तरह नंगी, फर्श पर पड़ी सिसक रही थी।
दरवाजा और खिड़की खुले थे। बंटी, जो शोर सुनकर आ गया था, चौखट पर खड़ा यह सब देख रहा था। उसका खून सूख गया था।
रमेश ने अपनी पैंट खोली और कामिनी के ऊपर लेट गया।
उसने अपनी उंगलियां कामिनी की टांगों के बीच डालीं।
लेकिन वहाँ... वहाँ सूखा पड़ा था।
रेगिस्तान जैसा सूखा।
कामिनी की चूत, जो दोपहर में रघु को देखकर बाढ़ की तरह बह रही थी, अपने पति के स्पर्श से बिलकुल सिकुड़ गई थी। वहां एक बूंद भी नमी नहीं थी।
यह देखकर रमेश और भड़क गया।
"साली... मेरी उंगली अंदर नहीं जा रही... किसके लिए बचा के रखा है पानी? हम्म?"
रमेश ने अपना लंड बाहर निकाला। वह मुरझाया हुआ, छोटा और ढीला था। शराब की अधिकता से उसमें तनाव आ ही नहीं रहा था।
वह कोशिश करता रहा, रगड़ता रहा, लेकिन लंड खड़ा नहीं हुआ।
अपनी नामर्दी और कामिनी के सूखेपन ने उसे पागल कर दिया।
उसकी नज़र पास ही फर्श पर पड़ी उसकी पैंट पर गई।
उसमें चमड़े की एक बेल्ट लगी थी, जिसका बक्कल (Buckle) भारी पीतल का था।
रमेश की आँखों में शैतान उतर आया।
उसने झपटकर बेल्ट खींची।
"सूखी पड़ी है ना तेरी चूत... रुक अभी गीली करता हूँ।"
उसने बेल्ट को दोहरा किया, बक्कल वाला हिस्सा अपने हाथ में लिया और...
बिना किसी चेतावनी के, वह ठंडा, नुकीला पीतल का बक्कल कामिनी की सूखी चूत के मुहाने पर रखकर पूरी ताकत से धकेल दिया।
"आइईईईईईईईईई........ मांअअअअअअ....."
कामिनी की आसमान चीरने वाली चीख निकली।
दर्द... असहनीय दर्द।
वह बक्कल उसकी कोमल त्वचा को छीलते हुए, जबरदस्ती उस तंग रास्ते में घुस गया।
बंटी ने अपनी आँखें बंद कर लीं, लेकिन कानों से वह माँ की चीख नहीं निकाल पाया।
"ले... ले रंडी... निकाल 200 रुपये... एक काम नहीं होता तुझसे..."
रमेश वहशीपन में बेल्ट को अंदर-बाहर करने लगा।
कामिनी हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रही थी, "दया करो... मर जाउंगी... निकालो इसे... खून निकल रहा है..."
लेकिन रमेश को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।
कामिनी की जांघों पर खून की पतली लकीरें बहने लगीं। चूत छिल गई थी, सूज गई थी।
रमेश ने अपने ढीले लंड को कामिनी की खून और आंसुओं से सनी जांघों पर रगड़ना शुरू कर दिया।
वह गालियां बकता रहा, "साली... मुफ्त की रोटियां तोड़ती है..."
कुछ ही देर में, उस रगड़ से ही रमेश का शरीर अकड़ा।
"आह्ह्ह...."
उसके लंड से वीर्य की एक बहुत ही पतली, कमज़ोर धार निकली और कामिनी की जांघ पर गिर गई।
वह वहीं लुढ़क गया। दो मिनट में उसके खर्राटे गूंजने लगे।
कामिनी...
वह फर्श पर अधमरी पड़ी थी।
उसकी टांगें फैली हुई थीं। उसकी योनि से वह बेल्ट का बक्कल अभी भी आधा बाहर और आधा अंदर धंसा हुआ था।
खून और वीर्य आपस में मिल रहे थे।
उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन वह अब चीख नहीं रही थी। वह बस छत को घूर रही थी, जैसे उसकी आत्मा मर चुकी हो।
200 रुपये के लिए उसकी अस्मिता, उसका शरीर और उसका स्वाभिमान आज रौंद दिया गया था।
और दरवाजे पर खड़ा बंटी...

उसकी मुट्ठी इतनी जोर से भिंची थी कि नाखून हथेलियों में गड़ गए।
आज उसने अपनी माँ को पिटते हुए नहीं, बल्कि टूटते हुए देखा था। और अपने पिता को... पिता को मरते हुए। उसके लिए उसका बाप आज मर चुका था।
(क्रमशः)

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