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मेरी माँ कामिनी -5


अपडेट - 5


कामिनी बेडरूम में बिस्तर पर पड़ी थी, लेकिन उसे लग रहा था जैसे वह अंगारों पर लेटी है।
उसकी हथेलियों में अभी भी रघु के उस 'काले लोहे' जैसे अंग की गर्माहट महसूस हो रही थी। उसने मुट्ठी भींचकर देखी, तो उसे अपनी खाली मुट्ठी में भी वही मोटाई, वही नसें महसूस हो रही थीं।
यह सिर्फ़ याद नहीं थी, यह एक नशा था जो चढ़ता ही जा रहा था।
"नहीं... मुझे यह खयाल दिमाग से निकालना होगा... मुझे खुद को साफ़ करना होगा," कामिनी बड़बड़ाई।
उसे लगा कि उसका जिस्म उस पराये मर्द के स्पर्श (भले ही वह एक तरफा था) से गंदा हो गया है। उसे नहाने की ज़रूरत थी। उसे लगा कि ठंडे पानी के फव्वारे उसके दिमाग की इस गंदी आग को बुझा देंगे।
वह लड़खड़ाते कदमों से उठी और बाथरूम में घुस गई।
दरवाज़ा बंद करते ही उसने सबसे पहले बेसिन के ऊपर लगे आईने में खुद को देखा।

और वहाँ उसे 'कामिनी' नहीं दिखी।
वहाँ एक और ही औरत खड़ी थी। एक प्यासी औरत, 
बाल बिखरे हुए, माथे पर पसीने की बूंदें, होंठ सूखे हुए और आँखें... आँखों में एक अधूरी इच्छा, एक भूख थी।

"कौन है तू?" कामिनी ने अपने ही प्रतिबिंब से पूछा।
 "तू वो संस्कारी माँ, पतीव्रता नारी तो नहीं है... तू तो एक प्यासी रंडी लग रही है।"
उसका अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था, रंडी शब्द उसके जहन मे कोंध रहा था, हाँ यही वो शब्द थे जो उसके पति ने कल रात उसके लिए कहे थे. b3d34abd12373b0d61d58005435f145b
लेकिन उसकी आँखें अपनी ही 36इंच की भरी सुडोल छाती के उभार को घूर रही थीं जो तेज़ सांसों के साथ ऊपर-नीचे हो रहा थी, 

बंद आँखों के अंधेरे में फिर वही चित्र कौंध गया—रघु की जांघों पर लेटा हुआ वह काला, विशाल और नसों वाला मूसल। 18508031

"हे भगवान..." कामिनी ने अपना सर झटक दिया, जैसे उस दृश्य को दिमाग से झाड़ देना चाहती हो। लेकिन वह दृश्य किसी जिद्दी दाग की तरह उसके जेहन में चिपक गया था।
उसने कांपते हाथों से अपनी साड़ी का पल्लू गिराया।
साड़ी सरक कर पैरों में गिरी। अब बारी ब्लाउज की थी।
पसीने से ब्लाउज उसकी पीठ और छाती से बुरी तरह चिपका हुआ था। उसने हुक खोले... एक... दो... तीन।
जैसे ही हुक खुले, उसे एक गहरी सांस लेने की राहत मिली।
उसने ब्लाउज उतारकर कोने में फेंक दिया।
बाथरूम की सफ़ेद ट्यूबलाइट की रोशनी में उसका जिस्म किसी सोने की मूरत की तरह चमक रहा था। पसीने की एक पतली परत उसके पूरे बदन पर चढ़ी हुई थी, जिससे उसका गेहुंआ रंग और भी ज्यादा मादक और चिकना लग रहा था।
उसकी ब्रा पसीने से भीग चुकी थी।
उसने पीछे हाथ ले जाकर ब्रा का हुक भी झटके से खोल दिया।
तड़ाक...
ब्रा हटते ही उसके भारी-भरकम, दूधिया स्तन आज़ाद होकर लटक गए।
कामिनी ने शीशे में देखा।
उत्तेजना और गर्मी की वजह से उसके स्तन सामान्य से ज्यादा फूले हुए और भारी लग रहे थे। और उन गोरे गुब्बारों के बीच, उसके डार्क ब्राउन निप्पल किसी बैर की तरह सख्त होकर तन गए थे। images-2
 वे ऐसे अकड़े हुए थे जैसे किसी के मुंह में जाने के लिए तड़प रहे हों।
कामिनी के हाथ अब उसके काबू में नहीं थे। उसके दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था, अब फैसलें उसका प्यासा जिस्म ले रहा था।
उसके दोनों हाथ धीरे-धीरे ऊपर उठे और अपने ही नंगे स्तनों पर जा टिके।
"हाअअअ...." स्पर्श करते ही उसके मुंह से एक आह निकल गई।
उसकी अपनी ही उंगलियां उसे किसी और का स्पर्श लग रही थीं।
उसने अपनी हथेलियों में अपने भारी स्तनों को भर लिया और धीरे-धीरे मसलने लगी।
पसीने की वजह से उसके हाथ स्तनों पर फिसल रहे थे।
"उफ्फ्फ... रघघ्घू.... नहीं... हे भगवान ..." उसके मुंह से निकले शब्द लड़खड़ा रहे थे।
कभी वह उन्हें जोर से दबाती, तो कभी अपने अंगूठे और उंगली के बीच अपने सख्त निप्पल को पकड़कर मरोड़ देती।
"सीईईईईई.... आआह्ह्ह...."
हर मरोड़ के साथ उसकी योनि में एक करंट दौड़ रहा था।
तभी उसे महसूस हुआ कि उसके पेट के निचले हिस्से में एक भारी दबाव बन रहा है।
डर, घबराहट और चरम उत्तेजना ने उसके मूत्राशय पर जोर डाल दिया था। उसे बहुत जोर से पेशाब लगी थी।
वह जल्दी से कमोड की तरफ मुड़ी और अपना पेटीकोट और पैंटी एक साथ नीचे खींच दी।

उसका नंगा, सुडौल पिछवाड़ा ठंडी प्लास्टिक की सीट पर टिका।
उसने अपनी टांगें चौड़ी कर दीं।
सामने की दीवार पर लगी टाइल्स को देखते हुए उसने अपनी आँखें मूंद लीं और अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया।
और फिर...
छर्रर्रर्रर्रर्र...........
एक तीखी, गर्म धारा उसके जिस्म से फूट पड़ी।
लेकिन यह सिर्फ़ पेशाब नहीं था।
कामिनी को ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके अंदर कोई ज्वालामुखी फट गया हो और वहां से उबलता हुआ 'गर्म लावा' बाहर निकल रहा हो।
उसकी योनि, जो पहले से ही काम-रस से लिसलिसी थी, उस गर्म पेशाब की धार से और भी ज्यादा सनसना उठी।
वह 'लावा' उसकी भीतरी दीवारों को सेकता हुआ, उसकी मूत्र-नली से होता हुआ बाहर निकल रहा था। m-ldpwiqacxt-E-Ai-mh-x7-Cs4-JHAGUymwx6-L-40501831b
उस जलन में भी एक अजीब सा, जानलेवा मज़ा था।

"आअह्ह्ह.... उउउउउफ्फ्फ्फ.... हाय मै मर गई...."
कामिनी ने अपना सिर पीछे दीवार से टिका दिया।
उसकी साफ, चिकनी चूत के होंठ फड़फड़ा रहे थे। पेशाब की गर्मी और योनि की प्यास ने मिलकर उसे एक अजीब सी मदहोशी में डाल दिया था।
नीचे कमोड में गिरती धार की आवाज़ गूंज रही थी, जो उसे यह अहसास दिला रही थी कि वह कितनी भरी हुई थी—गंदगी से भी, और हवस से भी।
उसने अपनी नज़र नीचे की।
उसकी टांगें चौड़ी थीं। उसकी चिकनी, गोरी जांघों के बीच से वह पीला-गर्म पानी निकल रहा था, और साथ ही लटक रहा था एक गाढ़ा, सफ़ेद तार... उसकी उत्तेजना का सबूत।
वह मूतती रही, और साथ ही साथ अपने स्तनों को जोर-जोर से भींचती रही।
पेशाब खत्म हुआ, लेकिन जलन खत्म नहीं हुई।
बल्कि अब खाली होने के बाद उसकी चूत और ज्यादा फड़फड़ाने लगी थी। उसे महसूस हो रहा था कि अंदर का रास्ता अब खुल गया है, गर्म हो गया है... बस अब वहां किसी चीज़ के दाखिल होने की देर है।
वह 'लावा' तो निकल गया, लेकिन अंदर की आग अभी भी दहक रही थी, जो शायद पानी से नहीं, किसी और ही चीज़ के पानी से बुझने वाली थी।
कामिनी वहीं कमोड पर बैठी रही, निढाल, नंगी और अपनी ही गर्मी में पिघलती हुई।
उसे पता नहीं था कि बाहर उसका बेटा बंटी, दरवाजे के पास खड़ा होकर पानी गिरने की वह आवाज़ सुन रहा था, उसकी माँ की सिस्कारिया उसके कानो मे पड़ रही थी.
******************

कमोड से उठकर कामिनी शावर के नीचे जा खड़ी हुई।
उसका जिस्म चीख-चीख कर उस मजबूत अंग की मांग कर रहा था, जिसे उसने थोड़ी देर पहले अपनी नाजुक हथेली से सहलाया था,
उसकी हथेलियाँ खुजला रही थीं कि बस एक बार... सिर्फ़ एक बार अपनी उस चिकनी, फड़फड़ाती हुई चूत को कसकर भींच ले।
मन कर रहा था कि अपनी उंगलियों को उस गीली दरार में घुसाकर तब तक रगड़े जब तक कि सारा तनाव, सारी हवस पिघल कर बह न जाए।
उसका हाथ अनजाने में नीचे की तरफ बढ़ा भी। उसकी उंगलियां उसकी जांघों को छूने ही वाली थीं।

लेकिन ऐन मौके पर... कामिनी ने अपनी मुट्ठी कस ली।
"नहीं..." उसने दांत पीसते हुए खुद से कहा। "नहीं कामिनी... तू रंडी नहीं है। तू खुद पर काबू पा सकती है।"
उसने अपनी इच्छाशक्ति के दम पर उस हाथ को वहीं रोक लिया। वह अपनी ही प्यास से लड़ रही थी, और यह लड़ाई किसी जंग से कम नहीं थी।
उसने झटके से नल घुमाया।
छर्रर्रर्र.........
शावर से बर्फीला ठंडा पानी उसके तपते हुए नंगे बदन पर गिरने लगा।
"सीईईईई....." ठंडक से उसका बदन अकड़ गया, लेकिन उसने खुद को वहां से हटने नहीं दिया।
वह चाहती थी कि यह ठंडा पानी उसकी हड्डियों में बसी उस 'हराम' गर्मी को सोख ले।
शावर का पानी उसके स्तनों से फिसलता हुआ, पेट की ढलान से होता हुआ, सीधा उसकी जांघों के उस 'त्रिकोण' पर गिर रहा था।
उसकी योनि, जो अभी कुछ पल पहले आग की भट्टी बनी हुई थी, ठंडे पानी के स्पर्श से सिकुड़ने लगी।
लेकिन इतना काफी नहीं था। अंदर की जलन अभी भी बाकी थी। 745f79ab84a23b1f7e13737565ddde8a

कामिनी ने मग में पानी भरा और झुककर...
छपाक.... छपाक.... छपाक....
उसने बेतहाशा पानी के मग अपनी चूत पर मारने शुरू कर दिए।
वह धो नहीं रही थी, बल्कि पानी के थप्पड़ मार रही थी। जैसे वह अपने उस अंग को सजा दे रही हो कि उसने उसे धोखा दिया, कि उसने एक शराबी के लंड को देखकर पानी क्यों छोड़ा।

हर छपाके के साथ वह बुदबुदा रही थी, "शांत हो जा... शांत हो जा रंडी..."
ठंडे पानी की उस लगातार बौछार ने धीरे-धीरे अपना असर दिखाया।
उसकी योनि की सूजी हुई पंखुड़ियां सुन्न पड़ने लगीं। वह जानलेवा खुजली, वह पागलपन वाली गर्मी पानी के साथ बहकर नाली में जाने लगी।
जिस्म की आग ठंडी पड़ गई, लेकिन दिल का बोझ बढ़ गया।
करीब 15 मिनट तक ठंडे पानी की मार सहने के बाद, कामिनी ने नल बंद किया।
वह भीगी हुई, कांपती हुई बाहर निकली। gifcandy-celebrities-62
उसने तौलिये से अपना बदन पोंछा। रगड़-रगड़ कर पोंछा, जैसे रघु के स्पर्श (या उसकी याद) को अपनी त्वचा से खुरच कर निकाल देना चाहती हो।
उसने ड्रेसिंग टेबल के आईने में अपनी शक्ल देखी।
आंखें लाल थीं और सूजी हुई थीं, मानो सदियों से रो रही हो। चेहरा पीला पड़ गया था।

वह "कामुक अप्सरा" जो कुछ देर पहले आईने में दिख रही थी, अब गायब थी। वहां सिर्फ़ एक थकी हुई, हारी हुई औरत खड़ी थी।
कामिनी ने एक साफ़, सूती साड़ी पहनी। बालों को तौलिये में लपेटा।

उसके पैर भारी हो गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसके शरीर से सारी ऊर्जा निचोड़ ली हो। यह शारीरिक थकान से ज्यादा मानसिक थकान थी।
ग्लानि, डर, और दबी हुई काम-इच्छा के उस तूफ़ान ने उसे अंदर से खोखला कर दिया था।
वह लड़खड़ाते हुए अपने बिस्तर तक पहुँची।
घड़ी में दोपहर के 3 बज रहे थे। घर में सन्नाटा था।
कामिनी बिस्तर पर गिर पड़ी। उसने तकिये में अपना मुंह छुपा लिया।
वह रोना चाहती थी, लेकिन अब आंसू भी सूख चुके थे।
उसका जिस्म हल्का हो गया था, जैसे कोई भारी बुखार उतर गया हो। वह ठंडापन उसे सुकून देने लगा।

उसकी पलकें भारी होने लगीं। दिमाग के तार एक-एक करके स्विच ऑफ होने लगे।
उसे पता ही नहीं चला कब वह ख्यालों की दुनिया से निकलकर गहरी, काली नींद के आगोश में समा गई।
वह सो रही थी, बेखबर...
लेकिन उसे नहीं पता था कि यह शांति सिर्फ़ कुछ पलों की है.
कहानी जारी है.....


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