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मेरी माँ कामिनी -9


अपडेट - 9

शाम ढल चुकी थी। रघु अपना काम खत्म करके कबका चला गया था, वो शाम को वापस पैसे मांगने भी नहीं आया था, ना जाने शर्म या ग्लानि से कह नहीं सकते.

कामिनी अपने कमरे में बैठी, अभी भी उस 'अधूरेपन' की टीस महसूस कर रही थी जो रघु उसे देकर गया था। उसका शरीर शांत था, जिस्म मे कहीं कोई दर्द नहीं था, लेकिन मन में एक तूफ़ान था।
तभी बाहर गेट पर पॉम-पॉम की आवाज़ नहीं, बल्कि एक भारी बुलेट (Bullet) मोटरसाइकिल की गड़गड़ाहट सुनाई दी।
कामिनी चौंक गई। यह आवाज़ रमेश के स्कूटर की नहीं थी। " फिर कौन आया है? " 
कामिनी ने रसोई की खिड़की से बहार झांका, 
रमेश आज अकेला नहीं आया था।
उसके साथ एक और आदमी था।
रमेश स्कूटर से उतरा और उसने हंसते हुए उस आदमी का स्वागत किया।
"आ जा भाई... देख ले मेरा आशियाना।"
वह आदमी बुलेट से उतरा।
कद 6 फुट से ऊपर, चौड़ा सीना, और चेहरे पर घनी, ऊपर को मुड़ी हुई रोबदार मूंछें। उसने पुलिस की खाकी वर्दी पहन रखी थी, लेकिन ऊपर के दो बटन खुले थे, जिससे उसकी बालों वाली छाती झांक रही थी। उसकी आँखें लाल थीं—शराब से भी, और फितरत से भी।
उसका नाम था शमशेर सिंह।

शहर का नामी पुलिस इन्स्पेक्टर और रमेश का पुराना 'जिगरी' यार। दोनों की दोस्ती का आधार सिर्फ़ एक था—शराब, शबाब और अय्याशी।
शमशेर ने गार्डन पर नज़र डाली।
"वाह रमेश बाबू... मकान तो खूब बड़ा बना लिया, बड़ा चकाचक रखा है," शमशेर की आवाज़ में एक भारी गूंज थी, "साफ़-सफाई तो बढ़िया है।"
"भाई तेरे जैसा यार नहीं होता तो ये सब नहीं होता मेरे पास, बल्कि जेल की रोती तोड़ रहा होता" रमेश हस पड़ा.

"अरे अभी तो तूने सिर्फ़ मकान देखा है... रुक तुझे इस मकान की असली 'रौनक' से मिलवाता हूँ," रमेश ने एक गंदी हंसी के साथ कहा।
वे दोनों घर के अंदर दाखिल हुए।
शराब की महक और बूटों की ठक-ठक से हॉल गूंज उठा।
"कामिनी... ओ कामिनी..." रमेश ने रौब से आवाज़ लगाई, "बाहर आ ज़रा, देख कौन आया है।"
पापा की आवाज़ सुन बंटी भी बहार आया, रमेश बंटी के सामने कोई बदतमीज़ी नहीं करता था.
"Hello बोलो बेटा अंकल को, आज पापा जो है सब इनकी दोस्ती की बदौलत है, "
"Hello अंकल " 
"Hello बेटा... कैसे हो, लास्ट टाइम देखा था, तब अपने दादा की गोदी मे खेल रहे थे तुम, उनपे ही गए हो, क्यों रमेश?
शमशेर ने बंटी की हेल्थ hight की तारीफ की.

तभी कामिनी भी रसोई से हाथ पोंछती हुई बाहर आई। लेकिन सामने खाकी वर्दी में खड़े उस 'दैत्य' को देखकर उसके कदम ठिठक गए। साला था ही राक्षस की औलाद.
शमशेर की नज़र जैसे ही कामिनी पर पड़ी, वह जड़ हो गया।
कामिनी ने घर की साधारण साड़ी पहनी थी, लेकिन रघु के इलाज के बाद उसके चेहरे पर जो एक थकावट और मादकता का मिश्रण था, उसने उसे और भी नमकीन बना दिया था।
 उसकी भरी हुई 36 की छाती, पतली कमर और चौड़े कूल्हे... शमशेर की हवसी आँखों ने एक ही पल में कामिनी का पूरा मुआयना कर लिया।
उसकी आँखों में सिर्फ़ तारीफ नहीं थी, एक नंगापन था। ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी नजरों से कामिनी के कपड़े फाड़ रहा हो।
उसने अपनी मूंछों पर ताव दिया और जीभ से होंठ गीले किए।

"भाभी जी... नमस्ते," शमशेर ने कहा, लेकिन उसकी नज़रें कामिनी की छाती पर चिपकी हुई थीं।
कामिनी ने पल्लू ठीक किया और नज़रें झुका लीं। उसे इस आदमी से एक अजीब सी घिनौनी 'वाइब' आ रही थी।

"ये मेरा दोस्त है, शमशेर। पुलिस में बड़ा अफ़सर है। किसी काम से इस शहर आया हुआ था, तो मैंने कहा चल घर पर ही महफ़िल जमाते हैं," रमेश ने गर्व से परिचय दिया।

"नमस्ते," कामिनी धीरे से बोली।
"जा, जल्दी से चखना और सलाद काट ला... और बर्फ भी ले आना। आज भाई के साथ पुरानी यादें ताज़ा करेंगे," रमेश ने हुक्म दिया।

अब तक बंटी भी जा चूका था, उसे भी शमशेर कुछ खास पसंद नहीं आया था, 
कामिनी मुड़ी और रसोई की तरफ जाने लगी।
शमशेर की नज़रें उसकी पीठ और चलते हुए कूल्हों की लचक पर गड़ गईं।
उसकी आंखे फट गई, ऐसी गांड, ऐसी मादक कड़क गांड उसने आज से पहले नहीं देखी थी, एक एक उभार, तक साफ दिखाई पढ़ रहा था, मादकता उसके चलने से ही झलक रही थी.

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"कयामत है बे..." शमशेर ने रमेश के कान में फुसफुसाते हुए कहा, लेकिन आवाज़ इतनी तेज़ थी कि कामिनी ने सुन लिया।

"साले रमेश... तूने कभी बताया नहीं कि तेरी बीवी इतनी बड़ी 'माल' है? उफ्फ्फ... क्या कसा हुआ बदन है।"
कामिनी के कान लाल हो गए। एक पराया मर्द उसके घर में, उसके पति के सामने उसे 'माल' बोल रहा था।
और रमेश?
रमेश गुस्सा होने के बजाय, खीसें निपोर कर हंस रहा था।
"हाहाहाहा... नसीब है भाई अपना। तू तो जानता है, तेरे भाई की चोइस हमेशा टॉप रहती है।"
रमेश के लिए उसकी बीवी इंसान नहीं, एक 'ट्रॉफी' थी जिसे वह अपने दोस्तों को दिखाकर अपनी मर्दानगी साबित कर रहा था।
दोनों डाइनिंग टेबल पर बैठ गए। व्हिस्की की बोतल खुल गई।
कामिनी रसोई में थी। रसोई का दरवाज़ा डाइनिंग टेबल के ठीक सामने था।
रमेश की पीठ रसोई की तरफ थी, लेकिन शमशेर ठीक सामने बैठा था।
यह जानबूझकर किया गया था या इत्तेफाक, पता नहीं। लेकिन शमशेर के पास अब एक सीधा 'व्यू' (View) था।
कामिनी गैस के पास खड़ी सब्जी चला रही थी।
शमशेर गिलास में दारू डालता, और फिर अपनी लाल, हवसी आँखों से सीधे रसोई में कामिनी को घूरता।

कामिनी को अपनी पीठ पर, अपनी कमर पर शमशेर की नजरों की जलन महसूस हो रही थी। वह बार-बार पल्लू ठीक कर रही थी, खुद को सिकोड़ रही थी, लेकिन रसोई में छुपने की कोई जगह नहीं थी। ऊपर से रसोई की गर्मी उसके जिस्म पर पसीने के रूप मे बहने लगी थी.
आगे झुकने से कामिनी की मादक गांड अपने पुरे शबाब पर थी, जिसका लुत्फ़ शमशेर उठा रहा था.

एक पैग खत्म हुआ। नशा चढ़ने लगा।
शमशेर की जुबान और गंदी हो गई।
"यार रमेश..." शमशेर ने मूंगफली चबाते हुए, ऊँची आवाज़ में कहा, "तेरी बीवी की कमर देख रहा है? बिलकुल मलाई जैसी है। कसम से, अगर ऐसी औरत मेरे पास होती ना..."
उसने अपनी गंदी हंसी के साथ बात पूरी की, "...तो साली को घर में नंगा ही रखता। कपड़े पहनाने की ज़रूरत ही क्या है ऐसी खूबसूरती को?"
रसोई में खड़ी कामिनी के हाथ से करछी छूटते-छूटते बची।
उसकी आँखों में आंसू आ गए। अपमान का घूंट पीकर वह रह गई।
"हाहाहाहा... तू नहीं सुधरेगा शमशेर," रमेश जोर-जोर से हंसा, "तू तो शुरू से ही ठरकी है।"


पास ही के कमरे में, बंटी किताब खोले बैठा था।
लेकिन उसका ध्यान पढ़ाई में नहीं था। बाहर से आ रही वहशियत भरी हंसी और अपनी माँ के लिए बोले गए वो गंदे शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह उतर रहे थे।
उसकी मुट्ठी इतनी जोर से भिंची कि पेन टूट गया।
"पापा... आप इतने गिर सकते हो?" बंटी की आँखों में अपने बाप के लिए नफरत की आग जल रही थी।
उसे मन कर रहा था कि बाहर जाकर उस पुलिस वाले के सिर पर बोतल फोड़ दे, लेकिन वह अपनी लाचारी और उम्र की वजह से मजबूर था।
बाहर टेबल पर, शमशेर ने अपना गिलास खाली किया और रमेश की तरफ झुककर बोला, "भाई, आज रात का क्या प्रोग्राम है? भाभी जी खाना खिलाएंगी या..."
उसने एक अश्लील इशारा किया 
रमेश ने नशें में चूर होकर कहा, "अरे तू बैठ तो सही... चिकेन बन रहा है, 
कामिनी रसोई में, गैस की आंच और शमशेर की हवस की आंच के बीच जल रही थी।
उसे रघु याद आ गया।
रघु, जो अनपढ़ था, मजदूर था, लेकिन उसने "दर्द" समझा था।
और ये... ये "पढ़े-लिखे साहब" और "कानून के रखवाले"... ये उसे नोच खाने को तैयार बैठे थे।
आज कामिनी को समझ आ गया था कि असली जानवर जंगल में नहीं, आलीशान कोठियों में रहते हैं।
******************


घड़ी की सुइयां 11 बजा रही थीं। हॉल में व्हिस्की की तीखी महक और मर्दाना हंसी गूंज रही थी।
रमेश और शमशेर, दोनों नशे में धुत थे।
कामिनी रसोई से चिकन की प्लेट लेकर बाहर आई।
उसके कदम भारी थे, लेकिन उसकी धड़कनें तेज़ थीं। उसे उस वर्दी वाले 'भेड़िये' के सामने जाने से डर लग रहा था, लेकिन पति का हुक्म था।
वह डाइनिंग टेबल के पास पहुँची।

शमशेर ठीक सामने बैठा था, अपनी टांगें फैलाए। उसकी लाल, हवसी आँखें कामिनी के जिस्म को ऐसे स्कैन कर रही थीं जैसे कोई एक्स-रे मशीन हो।
"अरे भाभी जी... लाइए, आज तो आपके हाथ का स्वाद चखें," शमशेर ने अपनी मूंछों पर जीभ फेरते हुए कहा।
कामिनी को शमशेर की प्लेट में चिकन परोसना था।
प्लेट शमशेर के बिल्कुल सामने रखी थी।
कामिनी, जो टेबल के बगल में खड़ी थी, उसे झुकना पड़ा।
और यही वह पल था जिसका शमशेर इंतज़ार कर रहा था।
जैसे ही कामिनी आगे झुकी... गुरुत्वाकर्षण (Gravity) ने अपना काम किया।
उसका ब्लाउज, जो उसकी भारी-भरकम 36 इंच की छाती को मुश्किल से थामे हुए था, झुकते ही ढीला पड़ गया।
उसकी साड़ी का पल्लू, जो उसने कंधे पर डाल रखा था, हवा में थोड़ा सा सरक गया।
शमशेर की आँखों के सामने जन्नत का नज़ारा था।
ब्लाउज के गहरे गले से कामिनी के दोनों गोरे, मलाईदार स्तनों की गहरी घाटी (Cleavage) साफ़ झांक रही थी। पसीने की एक पतली लकीर उस घाटी में चमक रही थी।
शमशेर की नज़रें वहां गड़ गईं। वह पलक झपकाना भूल गया।
कामिनी को एहसास था कि वह झुक रही है और उसका बदन नुमाइश के लिए खुला है।
शमशेर का चेहरा उसके स्तनों से मुश्किल से 6 इंच दूर था।
शमशेर की गर्म, शराब से लदी हुई सांसें (Breath) सीधी कामिनी के खुले हुए सीने और उसकी नंगी गर्दन पर टकराईं।
वह हवा का झोंका नहीं, बल्कि भाप जैसा गर्म था।
उस गर्म सांस के स्पर्श से कामिनी के बदन में एक झुरझुरी सी दौड़ गई।
उसके रोंगटे खड़े हो गए।
और न जाने क्यों... न चाहते हुए भी... ब्लाउज के अंदर कैद उसके निप्पल (Nipples) तन कर सख्त हो गए।
कामिनी का दिमाग चीख रहा था— 'हटो यहाँ से... यह गंदा आदमी है... यह मुझे नंगा कर रहा है अपनी नजरों से।'
उसे शमशेर से नफरत थी। उसे घिन आ रही थी।
लेकिन...
उसका जिस्म?
उसका जिस्म एक अलग ही खेल खेल रहा था।
सालों से रमेश की मार, गालियां और 'रंडी' जैसे शब्द सुनते-सुनते कामिनी के अवचेतन मन में एक अजीब सी वायरिंग हो गई थी।
उसे 'अपमान' में एक अजीब सा, दबा हुआ नशा आने लगा था।
जब शमशेर की वो भूखी नज़रें उसके स्तनों को खा रही थीं, तो उसे शर्मिंदगी महसूस हुई, लेकिन उसी शर्मिंदगी ने उसकी योनि में एक मीठी सी झुनझुनी पैदा कर दी।
उसे खुद पर हैरानी हुई— 'ये मुझे क्या हो रहा है? यह आदमी मुझे बेइज़्ज़त कर रहा है और मैं... मैं गीली हो रही हूँ?'
"उफ्फ्फ्फ..." शमशेर के मुंह से एक आह निकली। उसने जानबूझकर एक गहरी सांस खींची, जैसे कामिनी की खुशबू को अपने फेफड़ों में भर रहा हो।
"कयामत है भाभी जी... क्या खुशबू है," शमशेर ने धीरे से कहा, लेकिन उसकी आवाज़ में कामिनी के लिए एक गंदा इशारा था।
कामिनी हड़बड़ा कर सीधी हो गई। उसने जल्दी से पल्लू ठीक किया। उसका चेहरा लाल हो गया था—आधा गुस्से से, और आधा उस अजीब सी उत्तेजना से।
वह मुड़कर रसोई की तरफ भागना चाहती थी, लेकिन शमशेर के अगले शब्दों ने उसे वहीं रोक दिया।
शमशेर ने अपना गिलास उठाया और रमेश की तरफ देखकर बोला,
कितना किस्मत वाला है तु, खूब दबा दबा के चूसता होगा तु तो भाभी के....

शमशेर ने अपने हाथों से हवा में कामिनी के स्तनों का आकार बनाया।
कामिनी के कान जल उठे।
रमेश जोर से हंसा। "हाहाहा... नसीब है भाई अपना। मैंने कहा था न, मेरी चीज़ हमेशा एक नंबर होती है।"
शमशेर ने फिर एक घूंट भरा और कामिनी की पीठ को घूरते हुए बोला,
"मेरी बीवी ऐसी होती तो साली के दूध रोज़ रात को पीता, रोज़ गांड मारता, नामर्द ही होगा जो ऐसी गांड ना मारे "

यह वाक्य कामिनी के कानों में पिघले शीशे की तरह उतरा। उसका जिस्म छलनी सा हो गया,  उसने वाकई मे अपनी गांद को भींच लिया जैसे शमशेर अभी उसकी गांड मे लंड डाल देगा.... 
"साली की रोज़ गांड मारता ..." इससससससस.... ना जाने क्यों उसके मुँह से एक दर्दभारी सिस्कारी सी फुट पड़ी.
ये क्या था उसे भी नहीं पता....
कामिनी को याद आया, रमेश ने उसकी गांड मरने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन वो कभी चुत भी ठीक से ना मार सका तो गांड तो दूर की बात थी.
शमशेर की बात सच ही थी, रमेश वाकई नामर्द ही था.

यह घोर अपमान था। उसे एक वेश्या की तरह ट्रीट किया जा रहा था।
लेकिन हैरान कर देने वाली बात यह थी कि कामिनी को रोना नहीं आया।
बल्कि, 'दबा दबा कर पीने, गांड मारने ' की दर्द भरी कल्पना मात्र से उसकी जांघों के बीच एक सिहरन दौड़ गई।
उसे लगा जैसे सैकड़ों चींटियाँ उसके बदन पर रेंग रही हों।
यह नफरत और हवस का एक ऐसा गंदा मिश्रण था जिसे वह खुद समझ नहीं पा रही थी।
वह रसोई में घुस गई और सिंक का सहारा लेकर खड़ी हो गई।
उसकी सांसें फूल रही थीं।
उसने अपना हाथ अपने ब्लाउज के ऊपर रखा... उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था और निप्पल अभी भी पत्थर की तरह खड़े थे, कपड़े को चीरने की कोशिश कर रहे थे।
"मैं... मैं पागल हो रही हूँ," कामिनी ने खुद से कहा। "मुझे घिन आनी चाहिए... और मुझे... मुझे मज़ा आ रहा है?"
उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन उसकी चूत गीली थी।
आज कामिनी को अपनी ही एक काली सच्चाई का पता चला था—कि वह सिर्फ़ 'प्यार' की भूखी नहीं थी, शायद वह 'ज़िल्लत' की भी आदी हो चुकी थी।
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रमेश और शमशेर ने जमकर पी।
खेर शमशेर जाने को हुआ। रमेश ने चाहा कि वो रुक जाये, "काफ़ी रात हो गई है, सो ले यही।"
लेकिन शमशेर ने एक आँख दबाई "हर किसी के पास तेरी जैसी बीवी नहीं होती ना बे, हमें तो जाना पड़ता है लेने " बोल कर मुस्कुरा दिया। रमेश समझ गया।

रमेश और शमशेर लड़खड़ाते हुए बाहर को गए।
बाहर चबूतरे पे रघु बैठा हुआ था।
जैसे ही उसकी नजर वर्दी वाले शमशेर पर पड़ी, वह सन्न रह गया।
स्ट्रीट लाइट में शमशेर का चेहरा चमक रहा था।
रघु के जिस्म से डर का पसीना छूट गया। साथ ही चेहरे पे गुस्सा था, मुठी भींच गई।
शायद वो शमशेर को जनता था.
शमशेर अपनी बुलेट पर बैठकर निकल गया, बेखबर कि उसका एक पुराना शिकार उसे अंधेरे में घूर रहा है।
रमेश वापस अंदर आया।


कामिनी हॉल में खड़ी थी, उसका चेहरा तमतमाया हुआ था।
"क्या लगा रखा है आपने ये सब?" कामिनी फट पड़ी, "आपकी बात अलग है, आप पति हैं... लेकिन आपके सामने ही वो मुझे बोल रहा था... गंदी बातें कर रहा था।"
रमेश ने लड़खड़ाते हुए कामिनी को देखा।

"तो क्या हुआ? तू खूबसूरत नहीं है क्या? कोई तारीफ कर रहा है तो क्या दिक्कत है?"

कामिनी बिदक गई, "तारीफ? वो मेरी बेइज़्ज़ती कर रहा था।"
रमेश गुस्से से पास आया और कामिनी का जबड़ा पकड़ लिया।
"तुझे खा नहीं गया वो। देख भी लिया, कुछ बोल भी दिया तो घिस नहीं गई तू।"
उसने कामिनी को धक्का दिया। " उसके बहुत अहसान है मुझ पर " 
कामिनी को छोड़ वो बिस्तर पर गिर पड़ा ना जाने मया बड़बड़ता सो गया, रोज़ की बात थी....

कामिनी वहीं खड़ी रह गई।
"घिस नहीं गई तू..." ये शब्द उसके दिमाग में गूंज रहे थे।
बेइज़्ज़ती की आग में जलते हुए भी, उसे अपनी जांघों के बीच वही 'झुनझुनी' महसूस हो रही थी जो शमशेर की नज़रों ने दी थी।
बाहर रघु भी अब अंदर आ गया था। वह गार्डन में, जामुन के पेड़ के नीचे पीठ के बल सिमटा पड़ा था।

रात का सन्नाटा गहरा हो चुका था।
घर के अंदर और बाहर, दो अलग-अलग दुनियाएं बसी थीं, लेकिन दोनों में आग एक ही लगी थी।
बाहर गार्डन में, जामुन के पेड़ के नीचे रघु लेटा था।
उसकी खुली आँखों में नींद का नामो-निशान नहीं था। उसकी पुतलियों में एक अजीब सा "कोलाज" चल रहा था।
कभी उसे शमशेर का वहशी चेहरा और वर्दी दिखाई देती, जिससे उसका खून खौलने लगता। पुरानी यादें—सुगना की चीखें, जलता हुआ घर—उसे बेचैन कर रही थीं। एक धुंधली लेकिन गर्म आग उसके सीने में धधक रही थी।
लेकिन अगले ही पल... उस आग पर कामिनी की नंगी, सूजी हुई चूत की तस्वीर हावी हो जाती।
उसने दोपहर में जो स्वाद चखा था—शराब, खून और औरत के रस का वह नशीला कॉकटेल—वह अभी भी उसकी जुबान पर चिपका हुआ था।
रघु को एकतरफ जीने की रह दिख रही थी तो दूसरी तरफ वही नीरस जीवन, शराब का सहारा, उसे खुद नहीं पता था वो यहाँ क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है?


वही अंदर...
कामिनी अपने पति रमेश के बगल में लेटी थी, जो बेशर्मों की तरह खर्राटे ले रहा था।
कामिनी की आँखों में आंसू सूख चुके थे, लेकिन उसकी जांघों के बीच की नमी बढ़ती जा रही थी।
वह छत को घूर रही थी, और उसका दिमाग एक भंवर में फंसा हुआ था।
आज दिन भर में उसके साथ जो हुआ, उसने उसकी आत्मा को झकझोर दिया था।
एक तरफ रघु का वह 'दिन वाला प्यार' था—वह मरहम, वह जीभ का स्पर्श, और रोटी खिलाना। जिसने उसे 'औरत' होने का अहसास कराया था।

और दूसरी तरफ... शाम को शमशेर की वो 'भूखी, नंगी नजरें' थीं। वह 'माल' कहना, 'नंगा रखने' की बात करना, गांड मारने की बात करना और रमेश का उसे 'रंडी' कहकर धत्कारना।
कामिनी को खुद से डर लग रहा था।
उसे समझ नहीं आ रहा था, वो कौन है सच मे रंडी है,  औरत है वो क्या है? क्यों है?
समझ से बहार था की इसका जिस्म किस बात पर ज्यादा उत्तेजित हुआ था, 
रघु के प्यार भरे स्पर्श पर?
या शमशेर और रमेश द्वारा दी गई उस गंदी बेइज़्ज़ती पर?
क्या उसे सच में बुरा लगा था जब शमशेर उसे नंगा करने की बात कर रहा था?  गांड मरने की बात कर रहा रहा था? अगर बुरा लगा था, तो फिर उसके निप्पल तन क्यों गए थे? उसकी चूत में यह अजीब सी झुनझुनी क्यों हो रही थी?
क्या वह सच में एक रंडी बन गई है जिसे अपनी बेइज़्ज़ती में ही मज़ा आने लगा है?
कामिनी ने रजाई के अंदर अपना हाथ अपनी जांघों के बीच डाला।
उसकी चूत गीली थी... बहुत गीली। लिसलिसी।
यह नमी सिर्फ़ रघु की याद की नहीं थी, यह उस अपमान की भी थी जिसने उसके अंदर की दबी हुई 'कामुक स्त्री ' को जगा दिया था।

उस रात चाँद गवाह था।
एक तरफ 'प्रेमी' (रघु) था।
और दूसरी तरफ अपनी ही बेइज़्ज़ती से उत्तेजित 'प्रेमिका' (कामिनी) थी।
खेर औरत को कौन समझ पाया है.
Contd.....

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