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मेरी माँ कामिनी -10


अपडेट - 10, मेरी माँ कामिनी 



अगली सुबह, रमेश तैयार होकर, नाश्ता करके और रघु को सख्त हिदायत देकर ऑफिस जा चुका था।
"सुनो कामिनी... यह साला कामचोर है, ध्यान रखना कि स्टोर रूम पूरा साफ़ हो जाए," यह रमेश का आखिरी हुक्म था। हालांकि उसका लहजा हल्का ही था, दारू उतरने के बाद रमेश से सभ्य, मीठा बोलने वाला कोई दूसरा आदमी शायद ही दुनिया मे हो.

रमेश के स्कूटर की आवाज़ जैसे ही दूर हुई, घर में एक भारी सन्नाटा छा गया।
कामिनी हॉल में खड़ी थी। उसके बदन में एक अजीब सी बेचैनी थी।
कल दोपहर रघु ने जो 'इलाज' किया था—शराब की बोतल और अपनी जीभ से उसकी चुत के घाव को भरा था, —उसकी याद कामिनी को अंदर ही अंदर शर्मिंदा भी कर रही थी और उत्तेजित भी।

"मैं कैसे जाऊं उसके सामने?" कामिनी ने अपना पल्लू ठीक किया। "कल मैंने उसके सामने अपनी टांगें खोली थीं... आज किस मुँह से उससे बात करूँगी?"
उसके मन में भारी दुविधा थी। एक संस्कारी औरत की शर्म उसे रोक रही थी, लेकिन एक प्यासी औरत की तलब उसे खींच रही थी।
आखिरकार, "काम तो करवाना ही था उस से" का बहाना बनाकर उसने स्टोर रूम की ओर कदम बढ़ा ही दिए।

वह धीरे-धीरे चलते हुए घर के पीछे की तरफ गई, जहाँ पुराना स्टोर रूम (कबाड़खाना) था।
वहाँ सन्नाटा था। स्टोर रूम का दरवाज़ा खुला था।
कामिनी ने दरवाजे पर खड़े होकर अंदर झाँका।
"रघु...?"
अंदर कोई नहीं था। सिर्फ़ धूल और कबाड़।
कामिनी की धड़कन बढ़ गई। "कहाँ गया यह?"
उसने स्टोर रूम से बाहर निकलकर, पीछे बाउंड्री वॉल की तरफ देखा। वहां थोड़ी झाड़ियां और खाली जगह थी।
और तभी उसकी नज़र उस पर पड़ी।
रघु घर की पिछली दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा था।
वह कामिनी की तरफ पीठ किए हुए था, इसलिए उसे देख नहीं पाया।
कामिनी ने जो देखा, उसने उसके पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया। 20240603-122407
रघु ने अपनी लुंगी को घुटनों से ऊपर उठा रखा था और अपने दोनों पैरों को चौड़ा करके खड़ा था। उसका बायां हाथ कमर पर था और दायां हाथ आगे... अपनी जांघों के बीच।
एक तेज़ 'शर्रर्रर्रर्र...........' की आवाज़ सन्नाटे को चीर रही थी।
वह दीवार पर मूत रहा था। images-1
कामिनी को तुरंत अपनी नज़रें फेर लेनी चाहिए थीं। एक पराये मर्द को पेशाब करते देखना किसी भी शरीफ औरत के लिए पाप होना चाहिए, 
लेकिन नहीं, कामिनी की गर्दन मुड़ी ही नहीं। उसकी आँखें चुंबक की तरह वहीं चिपक गईं। दिल तेज़ धड़कने लगा था, मन मे एक अजीब सा तूफान हिलोरे मारने लगा था, 
रघु का दायां हाथ मुट्ठी में बंद था, और उस मुट्ठी से बाहर झांक रहा था... वही काला, मोटा और लंबा 'मूसल' जिसे कामिनी ने आज से एक दिन पहले छुआ था।
धूप में वह काला लंड किसी भयानक हथियार जैसा लग रहा था।
कामिनी की सांसें अटक गईं।
पेशाब की वह मोटी धार, जो प्रेशर के साथ दीवार पर गिर रही थी, यह बता रही थी कि उस अंग में कितनी ताकत और जवानी भरी है। images-2
कामिनी का दिमाग सुन्न हो गया।
उसे कल का वह दृश्य याद आ गया—जब यही रघु उसकी टांगों के बीच था और अपनी जीभ से उसकी चूत चाट रहा था।
उस याद ने कामिनी के अंदर दबी हुई आग में घी डाल दिया।
उसकी चूत, जो सुबह से शांत थी, अचानक कुलबुलाने लगी।
और फिर... कामिनी के दिमाग में एक ऐसा ख्याल आया जिसने उसे खुद ही चौंका दिया। एक ऐसा गंदा, कामुक ख्याल जो शायद किसी 'रंडी' को ही आ सकता था

वह उस मोटे, काले लंड को देखते हुए सोच रही थी—
"हे भगवान... इतना मोटा... क्या यह मेरे मुंह में भी जा सकता है?"
क्या जैसे इसने कल मेरी चूत चाटी थी... क्या मैं इसे चूस सकती हूँ?
इस ख्याल के आते ही कामिनी का दिल पसलियां तोड़कर बाहर आने को हो गया।
उसका गला सूख गया। वह अपनी ही बेशर्मी पर हैरान थी। वह एक पेशाब करते हुए आदमी के लंड को अपने मुंह में लेने की कल्पना कर रही थी?
तभी रघु का काम खत्म हुआ।
उसने अपने हाथ को हिलाया।
झट... झट...
उसने पेशाब की आखिरी बूंदें झाड़ने के लिए अपने लंड को दो-तीन बार हवा में जोर से झटका दिया।
वह झटका रघु ने अपने लंड को दिया था...
लेकिन कामिनी को लगा जैसे वह झटका उसकी चूत के अंदर लगा हो।
"आह्ह्ह..." उसके मुंह से बिना आवाज़ की सिसकी निकली।
उस झटके को देखकर, कामिनी की योनि ने अपनी पकड़ खो दी।
एक गर्म, चिपचिपा पानी उसकी चूत से रिसकर उसकी जांघों पर बहने लगा। 20220314-112624

रघु ने अपनी लुंगी नीचे गिराई और नाड़ा कसने लगा।
कामिनी अभी भी दीवार की आड़ में छिपी, अपनी साड़ी को मुट्ठी में भींचकर खड़ी थी। उसकी टांगें कांप रही थीं और पैंटी गीली हो चुकी थी।

कामिनी की टांगें जाम हो गई थीं।
वह दीवार की आड़ से भागना चाहती थी, लेकिन उसके कदम ज़मीन से चिपक गए थे। उस मुसल जैसे लंड और उसके झटको ने उसे सम्मोहित कर दिया था।

तभी रघु मुड़ा।
वह अपनी लुंगी ठीक करता हुआ वापस स्टोर रूम के दरवाजे पर आया।
और जैसे ही उसने सामने कामिनी को खड़ा देखा, उसकी बांछें खिल गईं।
सामने उसकी 'मेमसाब' खड़ी थी—भरा-पूरा, पसीने में भीगा हुआ जिस्म, और चेहरे पर एक अजीब सी घबराहट। रघु की आँखों में चमक आ गई।

"अरे मेमसाब... आप?"
कामिनी को तो जैसे सांप सूंघ गया था, मुँह तो खुला कुछ बोलने के लिए, लेकिन सिर्फ हवा ही निकली, शब्द तो गले मे ही कहीं फसे रह गए थे,

रघु ने थोड़ा शर्माते हुए अपना हाथ उठाया और अपनी छोटी ऊंगली (Little Finger) दिखा दी। जैसे समझ गया हो मेमसाब क्या पूछना चाह रही है, 
"वो... मेमसाब... ज़रा पेशाब करने चले गए थे... जोर की लगी थी।"
रघु ने अपनी छोटी ऊंगली दिखाई थी—यह बताने के लिए कि वह 'लघुशंका' के लिए गया था।
लेकिन कामिनी की नज़र उस छोटी सी ऊंगली पर टिक गई।

और फिर...
एक चुंबक की तरह उसकी नज़रें वहां से फिसलकर सीधे रघु की लुंगी के बीचो-बीच चली गईं।
कामिनी का दिमाग अपने आप एक 'तुलना' करने लगा।

उसने रघु की उस पतली सी छोटी ऊंगली को देखा... और फिर उसे याद आया वह विशाल, काला और मोटा लंड जो उसने अभी-अभी देखा था।
'हे भगवान... इशारा कितना छोटा कर रहा है, और माल कितना बड़ा रखता है...'
कामिनी का अंतर्मन उसे कचोट रहा था।

'छि कामिनी... तू क्या सोच रही है? तू उसकी ऊंगली और लंड का नाप ले रही है? तू इतनी गिर गई है?'
वह कुछ बोलने लायक नहीं बची थी। उसका गला सूख चुका था और दिल हथौड़े की तरह बज रहा था।

शायद रघु ने कामिनी की उस चोरी-छुपे डाली गई नज़र को पकड़ लिया। 

उसने धीरे से, एक गहरी और मतलब भरी आवाज़ में पूछा—
"अब दर्द तो नहीं है ना मैडम?"
उसने जानबूझकर कल दोपहर वाली बात छेड़ी।
यह सवाल सुनते ही कामिनी पानी-पानी हो गई।
दर्द?
कैसा दर्द?
रघु उसे याद दिला रहा था कि कल उसने अपनी जीभ से कैसे उसका दर्द मिटाया था।
कामिनी को लगा जैसे वह रंगे हाथों चोरी करते पकड़ी गई हो।

"हाँ... हाँ... मतलब... नहीं... नहीं, अब नहीं है," वह हकलाने लगी। उसके शब्द आपस में उलझ रहे थे।
उसे लगा कि अगर वह एक पल भी और यहाँ रुकी,  तो फिर रुक नहीं पायेगी, उसकी जाँघे जवाब दे देगी, चोरी पकड़ी जाएगी.


"वो... वो साहब ने बोला है आज काम खत्म कर देना," कामिनी ने जल्दी से कहा, अपनी मालकिन वाली हैसियत का सहारा लेते हुए।
वह वहां से भागने को हुई, जैसे किसी ने उसे चोरी करते देख लिया हो।
लेकिन जाने से पहले, उसने अपने पल्लू में दबा हुआ 100 का नोट निकाला।
उसने रघु के हाथ में देने की हिम्मत नहीं की।
पास ही पड़े एक पुराने लकड़ी के बक्से पर उसने वह नोट रख दिया।

"ये... ये एडवांस है तुम्हारा... कुछ खा-पी लेना," कामिनी ने बिना सांस लिए कहा।
उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसके अंदर रघु से नज़रें मिलाने की हिम्मत ही नहीं बची थी।
वह खुद से भाग रही थी, अपनी गंदी सोच से भाग रही थी।
वह वहां से भागी... और खूब भागी।
गार्डन से होते हुए, बरामदा पार करके, वह सीधे अपने बेडरूम में आकर रुकी।
उसने धम्म से दरवाज़ा बंद किया और वहीं दरवाजे से पीठ टिकाकर खड़ी हो गई।

उसकी सांसें फूली हुई थीं। छाती तेज़ी से ऊपर-नीचे हो रही थी। बाल बिखर गए थे और साड़ी का पल्लू गिर गया था।
सब कुछ अस्त-व्यस्त था—उसका कपड़ा भी, और उसका चरित्र भी।
वह अपनी बंद आँखों में अभी भी वही देख रही थी—रघु का सटाक सटाक अपने लंड को झटका देना, और अपनी जांघों के बीच बहता हुआ पानी।
हमफ्फ्फ्फफ्फ्फ़..... हमफ्फ्फ्फफ्फ्फ़..... हंफ....


कामिनी अभी दरवाजे से टेक लगाकर अपनी सांसें काबू करने की कोशिश ही कर रही थी कि अचानक...
ट्रिंग... ट्रिंग...
बगल में पड़े फोन की तेज़ आवाज़ ने उसे चौंका दिया। वह ख्यालों की दुनिया से हड़बड़ा कर बाहर आई।

उसने देखा स्क्रीन पर 'रमेश जी"  नाम चमक रहा था।
उसने जल्दी से गला साफ किया, पल्लू ठीक किया और कांपते हाथों से फोन उठाया।

"ह... हाँ... हेलो?" कामिनी की आवाज़ अभी भी लड़खड़ा रही थी, जैसे वह दौड़ कर आई हो।
"अरे कहाँ थी? कितनी देर से फोन कर रहा हूँ, उठाती क्यों नहीं?" उधर से रमेश की आवाज़ आई।
"वो... वो... काम... काम था... सफाई कर रही थी," कामिनी ने झूठ बोला और खुद को कण्ट्रोल करने की कोशिश की। उसका दिल अभी भी पसलियों से टकरा रहा था।

"अच्छा सुनो," रमेश को रत्ती भर भी परवाह नहीं थी कि उसकी पत्नी क्यों हड़बड़ा रही है या उसकी सांसें क्यों फूली हुई हैं। उसे बस अपने मतलब की बात करनी थी।

"शमशेर भाई को तुम्हारे हाथ का खाना बहुत पसंद आया है। उन्होंने कहा है कि अब से रात का खाना वो हमारे साथ ही खाएंगे। होटल का खाना उन्हें पचता नहीं।"
"शमशेर..."
जैसे ही यह नाम कामिनी के कानों में पड़ा, उसका जिस्म एक बार फिर से धोखा दे गया।
कल रात की वो गंदी तारीफें... वो नंगी निगाहें...
शमशेर का नाम सुनते ही कामिनी की जांघों के बीच एक बाढ़ सी आ गई।
रघु को देखकर जो नमी बनी थी, शमशेर के नाम ने उसे सैलाब में बदल दिया।

उसकी आँखों के सामने शमशेर का वो रोबदार चेहरा, वो चौड़ी, बालों वाली छाती और वर्दी से आती वो कड़क, मर्दाना खुशबू का अहसास छा गया।
उसे फिर वही झुनझुनी महसूस हुई—घिनौनी, लेकिन उत्तेजक।
उसकी पैंटी पूरी तरह गीली होकर चिपक गई।
ना जाने क्यों कामिनी ने कोई आपत्ति नहीं जताई की शमशेर रोज़ रात को यही खाना खायेगा, या उसमे अपने पति के फैसले का विरोध करने की हिम्मत ही नहीं थी.

"क... क्क... क्या... क्या लाऊँ?" कामिनी का गला पूरी तरह सूख गया। उसे लगा अगर वह और बोली तो उसके मुंह से आह निकल जाएगी।

"अरे कुछ भी ले आना, तुम तो सब अच्छा बनाती हो," रमेश ने बड़ी मिठास से कहा।
बिना दारू के रमेश कितना सज्जन, कितना शरीफ लगता था। उसके मुंह से शहद टपक रहा था। कोई कह ही नहीं सकता था कि रात को यही आदमी जानवर बन जाता है।

"ठीक है..." कहकर कामिनी ने फोन काट दिया और बिस्तर पर फेंक दिया।
उसने दीवार घड़ी पर नज़र डाली। दोपहर के 12 बज रहे थे।
बंटी के स्कूल से आने में अभी एक घंटा बाकी था।
कामिनी की जाँघे कांप रही थी, उस से सम्भला नहीं गया, धम्म से बिस्तर पर जा गिरी.
सुनी आँखों से ऊपर चलता पंखा देखे जा रही थी, शायद वो वो खुद घूम रही थी.
वो पंखा तो रुका हुआ था.

Contd......

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