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माँ का इलाज -6

अपडेट -6

"तो क्या मैं हक़ीक़त में समझू कि तुमने भी मुझे सहर्ष ही एक सेक्शोलोगीस्त के रूप में स्वीकार कर लिया है ? या अब भी तुम्हारे मश्तिश्क में उट-पटांग कयास चल रहे हैं मा ?" ऋषभ ने ममता पर दबाव बनाते हुवे पुछा, वह उसे ज़्यादा सोचने-विचारने का मौका नही देना चाहता था, उसे अच्छे से मालूम था कि उसकी मा निश्चित ही कुच्छ वक़्त और अपने बचाव में तर्क प्रस्तुत करेगी मगर उस वक़्त की अवधि कितनी दीर्घ या लघु होनी चाहिए यह खुद ऋषभ को तय करना था. वर्तमान जैसी जटिल परिस्थिति से उसका सामना पहले कभी नही हुआ था और सही मायने में यह वक़्त उसके बीते सारे अनुभव को परखने का एक स्वर्णिम अवसर था.

"पानी रेशू! मुझे पानी पीना है" ममता ने मूँह खोला भी तो अपनी प्यास बुझाने की खातिर, भले यह प्यास उसके सूखे गले को तरलता प्रदान करने हेतु जागृत हुई थी. ऋषभ ने फॉरन अपनी बाईं ओर स्थापित फ्रिज से बिसलेरी की बॉटल निकाल कर उसके सुपुर्द कर दी और अपनी मा की अगली गति-विधि पर बेहद बारीकी से गौर फरमाने लगता है, यक़ीनन वह जानता था कि आगे क्या होने वाला है और इसी को दूर-दर्शिता भी कहते हैं जो अमूमन राष्ट्र-भक्त राजनैतीग्यों, उन्नत व्यापारियों, प्रसिद्ध वैज्ञानिको, मचलने योगियों और अनुभवी चिकित्सको में कूट-कूट कर भरी होती है.

ममता ने अपने पुत्र के अनुमान को कतयि ग़लत साबित नही किया और बल-पूर्वक बॉटल के ढक्कन को खोल कर उसका मुखाना अपने अत्यंत काँपते होंठो से सटा लेती है, तत-पश्चात कितना पानी उसके गले तक पहुँच पाया या कितना छलक कर उसके वस्त्रो पर आ गिरा उसे खुद अंदाज़ा नही रहता. 23085 गलल-गलल का स्वर मानो पूरे कॅबिन में गूँज रहा था और इस बात से अंजान की ऋषभ के चेहरे पर विजयी मुस्कान व्याप्त हो गयी है अती-शीघ्र ममता पानी की पूरी बॉटल खाली चुकी थी.

"मैने इस फ्रिड्ज को सिर्फ़ पानी की बोतलों के भर रखा है मा! क्यों कि यहाँ आने वाले मरीज़ो को प्यास बहुत लगती है. तुम्हे एक बॉटल और दूं ? मेरा अनुमान है कि तुम अभी भी प्यासी होगी" ऋषभ व्यंग करते हुवे बोला, ऐसा नही था कि वह अपनी मा की भावनाओ का मज़ाक उड़ा रहा हो बल्कि उनके दरमियाँ मजबूती से खड़ी विशाल मर्यादित दीवार में वह छोटा सा एक छेद बनाने का प्रयास कर रहा था ताकि सम्पूर्न दीवार तो ज्यों की त्यों बरकरार रहे परंतु आपसी शरम-संकोच में अवश्य घटाव लाया जा सके.

"यह! यह तू क्या कह रहा है रेशू ? नही नही, मुझे और पानी नही पीना" ममता सकपकाई मगर मन ही मन अपने पुत्र की तारीफ़ किए बगैर नही रह सकी. राजेश-ऋषभ के संबंधो में काफ़ी लंबे अरसे से मन-मुटाव चल रहा था और हर भारतीय पतिव्रता नारी की भाँति ममता ने भी सदैव अपने पति का ही साथ दिया था. ऋषभ अपनी ज़िद पर अड़ा रहा और राजेश अपनी मगर उनके बीच-बचाव में पिस गयी ममता. पहली बार उसे अफ़सोस हुवा कि उसे अपने पुत्र को यूँ अकेला नही छोड़ना चाहिए था, एक तरह से पति की नपुंसकता ही वजह बनी थी जो आज उसे अपनी ग़लती में सुधार करने मौका मिला था.

"मैं सच कह रहा हूँ मा और जानता हूँ कि तुम किस रोग से पीड़ित हो, मैने पहले ही कहा था कि तुम्हारी उमर में अक्सर औरतो को सेक्स संबंधी प्राब्लम'स फेस करनी पड़ती हैं तो क्या बदनामी के डर से उन्हे सिर्फ़ घुटते रहना चाहिए ? मैं तुमसे पुछ्ता हूँ मा! क्या मैं वाकाई एक विश्वास करने लायक यौन चिकित्सक नही जिसके साथ कोई रोगी अपने रोग को साझा कर सके, फिर चाहे वो रोगी स्वयं उस यौन चिकित्सक की सग़ी मा ही क्यों ना हो ? क्या तुम्हे भी इसी बात का डर है कि मैं तुम्हे! अपनी मा को बदनाम कर दूँगा ?" आवेश से थरथराते ऋषभ के वे कठोर शब्द किसी तीक्ष्ण, नुकीले बान की तरह तीव्र वेग से ममता के दिल को भेद गये, उसके उदगार पिघले गरम शीशे की भाँति उसके कानो में जा घुसे. अब तक जिस मायूसी, लज्जा, उत्तेजना आदि अनेक भाव से उसका सामना हुवा था उनमें आकस्मात ही शर्मिंदगी का नया भाव भी जुड़ गया. दुख की असन्ख्य चीटियाँ मन-रूपी घायल भुजंग को चारो ओर से काटने लगी.

"आख़िर मुझे हो क्या गया है ? क्यों कि वह मेरा बेटा है! क्या इसलिए मैं घबरा रही हूँ मगर यह बात तो खुशी की है कि उससे अपने रोग को सांझा करने के बाद यक़ीनन मेरी बदनामी नही होगी" ममता ने सोचा. कुच्छ वक़्त पिछे का घटना-क्रम भी उसकी आँखों के आगे घूमने लगा था, जिसमें एक पति के समक्ष ही निचले धड़ से नंगी उसकी बीवी कॅबिन के बिस्तर पर घोड़ी बन कर बैठी हुवी थी और ऋषभ उस औरत की गान्ड के छत-विक्षत छेद का बारीकी से नीरिक्षण कर रहा था.

"रेशू! मुझे ज़रा भी भूक नही लगती, रात मैं ठीक से सो नही पाती, पूरे शरीर में दर्द बना रहता है" उसने बताया.

ऋषभ: "मा! यह सब तो मुझे भी मालूम है, तुम केवल इतना बताओ कि तुम्हे सबसे ज़्यादा तकलीफ़ शरीर के किस हिस्से में है ?"

ममता असमंजस की स्थिति में फस गयी, कभी ऐसा भी दिन उसके जीवन में आएगा उसने सोचा ना था. उनके बीच पनपा यह अमर्यादित वाद-विवाद इतना आगे बढ़ चुका था कि अब उसका पिछे लौट पाना असंभव था और जानते हुवे कि उसका अगला कदम बहुत भीषण परिणामो को उत्पन्न कर सकता है, वह कप्कपाते स्वर में हौले से फुसफुसाई.

"मेरी! मेरी योनि में"

मेरी! मेरी योनि में" ममता ने सच स्वीकारते हुए कहा, किसी मा के नज़रिए से यह कितनी निर्लज्ज अवस्था थी जो उसे अपने ही सगे जवान बेटे के समक्ष बेशर्मी से अपने प्रमुख गुप्ताँग का नाम लेना पड़ रहा था. उसने ऋषभ के साथ अपना राज़ तो सांझा किया ही किया मगर अपनी कामुत्तेज्ना को भी तीव्रता से बढ़ाने की भूल कर बैठी. योनि शब्द का इतना स्पष्ट उच्चारण करने के उपरांत पहले से अत्यधिक रिस्ति उसकी पीड़ित चूत में मानो बुलबुले उठने लगे और जिसकी अन्द्रूनि गहराई में आकस्मात ही वह गाढ़ा रस उमड़ता सा महसूस करने लगी थी.

"हे हे हे हे मा! तुम बे-वजह कितना शर्मा रही थी" ऋषभ हस्ते हुवे बोला परंतु हक़ीक़त में उसकी वो हसी सिवाए खोखलेपन के कुच्छ और ना थी. वह कितना ही अनुभवी यौन चिकित्सक क्यों ना था, पूर्व में कितनी ही गंभीर स्थितियों का उसने चुटकियों में निदान क्यों ना किया था मगर वर्तमान की परिस्थिति उसके लिए ज़रा सी भी अनुकूल नही रह गयी थी. अपनी सग़ी मा के बेहद सुंदर मुख से यह अश्लील बात सुनना कि वह अपनी चूत में दर्द महसूस करती है, उसके पुत्र के लिए कितनी अधिक उत्तेजनवर्धक साबित हो सकती है, या तो ऋषभ का शुरूवाती बागी मन जानता था या चुस्त फ्रेंची की क़ैद में अचानक से फूलता जा रहा उसका विशाल लंड. वह चाहता तो अपने कथन में शरम की जगह घबराहट लफ्ज़ का भी इस्तेमाल कर सकता था क्यों कि ममता उसे लज्जा से कहीं ज़्यादा घबराई हुवी सी प्रतीत हो रही थी.

"तो मा! तुम्हें सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तुम्हारी योनि में है" उसने अपनी मा के शब्दो को दोहराया जैसे वापस उस वर्जित बात का पुष्टिकरण चाहता हो. यक़ीनन इसी आशा के तेहेत कि शायद उसके ऐसा कहने से पुनः उसकी मा चूत नामक कामुक शब्द का उच्चारण कर दे. मनुष्य के कलयुगी मस्तिष्क की यह ख़ासियत होती है कि वह सकारात्मक विचार से कहीं ज़्यादा नकारात्मक विचारो पर आकर्षित होता है और ऋषभ जैसा अनुभवी चिकित्सक भी कलयुग की उस मार से अपना बचाव नही कर पाया था.

"ह .. हां" ममता अपने झुक चुके अत्यंत शर्मिंदगी से लबरेज़ चेहरे को दो बार ऊपर-नीचे हिलाते हुवे हौले से बुदबुदाई.

"मगर तू हसा क्यों ?" उसने पुछा. हलाकी इस सवाल का उस ठहरे हुवे वक़्त और बेहद बिगड़ी परिस्थिति से कोई विशेष संबंध नही था परंतु हँसने वाले युवक से उसका बहुत गहरा संबंध था और वह जानने को उत्सुक थी कि ऋषभ ने उसकी व्यथा पर व्यंग कसा है या उसके डूबते मनोबल को उबारने हेतु उसे सहारा देने का प्रयत्न किया था.

"तुम्हारी नादानी पर मा! इंसान के हालात हमेशा एक से हों, कभी संभव नही. सुख-दुख तो लगा ही रहता है, बस हमे बुरे समय के बीतने का इंतज़ार करना चाहिए. खेर छोड़ो! अब तो तुम चिंता मुक्त हो ना ?" ऋषभ ने अपनी मा का मन टटोला ताकि आगे के वार्तालाप के लिए सुगम व सरल पाठ का निर्माण हो सके.

"ह्म्‍म्म" ममता ने भी सहमति जाताई, उसके पुत्र के साहित्यिक कथन का परिणाम रहा जो उसे दोबारा से अपना सर ऊपर उठाने का बल प्राप्त हुआ था.

"कब से हो रहा है यह दर्द तुम्हारी योनि में ?" जब ऋषभ ने देखा कि ममता का चेहरा स्वयं उसके चेहरे के सम्तुल्य आ गया है, इस स्वर्णिम मौके का फ़ायडा उठाते हुवे उसने अपनी मा की कजरारी आँखों में झाँकते हुए पुछा. ऐसा नही था कि उसे ममता किसी आम औरत की भाँति नज़र आ रही थी, उसने कभी अपनी मा को उत्तेजना पूर्ण शब्द के साथ जोड़ कर नही देखा था. वह उसके लिए उतनी ही पवित्र, उतनी ही निष्कलंक थी जितनी कि कोई दैवीय मूरत. बस एक कसक थी या अजीब सा कौतूहल जो ऋषभ को मजबूर कर रहा था कि वह उसके विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करे भले वो जानकारी मर्यादित श्रेणी में हो या पूर्न अमर्यादित.

"यही कोई महीने भर से" ममता ने बताया. वह चाहती तो आज या कल का बहाना बना कर उस अनैतिक वार्तलाब की अवधि घटा सकती थी परंतु सबसे बड़ा भेद तो वह खोल ही चुकी थी, अब उसके नज़रिए से कोई विशेष अंतर ना पड़ना था.

"क्या! महीने भर से" ऋषभ चौंका.

"उससे भी पहले से" ममता ने दोबारा विस्फोट किया.

"तो .. तो तुमने मुझे कुच्छ बताया क्यों नही मा ?" ऋषभ ने व्याकुल स्वर में पुछा, उसके मस्तिष्क में अचानक से चिंता का वास हो गया था. शरीर के किसी भी अंग में इतने लंबे समय तक दर्द बने रहना बहुत ही गंभीर परिणामो का सूचक माना जाता है और उसकी मा के मुताबिक दर्द उसके शरीर के सबसे संवेदनशील अंग उसकी चूत में था और जो वाकाई संदेह से परिपूर्ण विषय था.

"कैसे बताती ? जब किसी अन्य डॉक्टर को नही बता पाई तो फिर तू तो मेरा बेटा है" बोलते हुए ममता की आँखें मूंद जाती हैं.

ऋषभ: "तो क्या सिर्फ़ घुट'ते रहने से तुम्हारा दर्द समाप्त हो जाता ?"

ममता: "बेशरम बनने से तो कहीं अच्छी थी यह घुटन"

ऋषभ: "तुम किस युग में जी रही हो मा! क्या तुम्हे ज़रा सा भी अंदाज़ा है ?"

ममता: "युग बदल जाने से क्या इंसान को अपनी हद्द भूल जानी चाहिए ?"

"हद में रह कर ही तो तुम्हारी इतनी गंभीर हालत हुई है, काश मा! काश की तुमने थोड़ी देर के लिए ही सही, मुझे अपना बेटा समझने से इनकार कर दिया होता तो आज मैं कुच्छ हद्द तक माटर-रिंन से मुक्त हो गया होता" ऋषभ के दुइ-अर्थी शाब्दिक कथन के उपरांत तो जैसे पूरे कॅबिन में सन्नाटा छा जाता है.

मैने भी तो तेरी उपेक्षा की थी रेशू! मुझे अपने पति की आग्या का सम्मान करने के साथ अपने पुत्र की भावनाओ को भी समझने का प्रयास करना चाहिए था और जिसे मैने पूरी तरह से नज़र-अंदाज़ कर दिया था" कॅबिन में छाई शांति को भंग करते हुवे ममता बोली. अजीब सी स्थिति का निर्माण हो चुका था, मा थी जो अपने मात्रत्व पर ही दोषा-रोपण कर रही थी और उसका बेटा था जो उसे आज के परिवेश में ढल जाने की शिक्षा दे रहा था.

"तो क्या अब तुम अपनी उस छोटी सी भूल का इस तरह शोक मनाओगी ?" ऋषभ ने प्रत्युत्तर में पुछा.

"चाहे छोटी हो या बड़ी! भूल-भूल होती है रेशू" ममता ने आकस्मात पनपे उस नये वाद-विवाद को आगे बढ़ाया जो असल विषय से बिल्कुल भटक चुका था. उत्तेजना अपनी जगह और मान-मर्यादा, लिहाज, सभ्यता, संस्कार अपनी. हर मनुश्य के खुद के कुच्छ सिद्धांत होते हैं और बुद्धिजीवी वो अपने नियम, धरम के हिसाब से ही अपने जीवन का निर्वाह करता है. माना ममता की दुनिया शुरूवात से बहुत व्यापक रही थी, एक अच्छी ग्रहिणी होने के साथ-साथ वह कामयाब काम-काज़ी महिला भी थी. पति व पुत्र के अलावा ऐसे कयि मर्द रहे जिनके निर्देशन में उसे काम करना पड़ा था तो कभी मर्दो को अपने संरक्षण में रख कर उनसे काम लेना भी अनिवार्य था. वह यौवन से भरपूर अत्यंत सुंदर, कामुक नारी थी. कयि तरह के लोभ-लालच उसके बढ़ते परंतु बंधन-बढ़ते कदमो में खुलेपन की रफ़्तार देने को निरंतर अवतरित होते रहे थे मगर वह पहले से ही इतनी सक्षम, संपन्न व संतुष्ट थी कि किसी भी लालच की तरफ उसका झुकाव कभी नही हुवा था. हमेशा वस्त्रो से धकि रहना लेकिन पति संग सहवास के वक़्त उन्ही कपड़ो से दुश्मनी निकालना उसकी खूबी थी, चुदाई के लगभग हर आसान से वह भली भाँति परिचित थी. विवाह के पश्चात से अपने पति की इक्षा के विरुद्ध उसने कभी अपनी झांतो को पूर्न-रूप से सॉफ नही किया था बल्कि कैंची से उनकी एक निश्चित इकाई में काट-छांट कर लिया करती थी और तब से ले कर राजेश के बीमार होने तक हर रात उससे अपनी चूत चटवाना और स्खलन के उपरांत पुरूस्कार-स्वरूप उसे अपनी गाढ़ी रज पिलवाना उसके बेहद पसंदीदा कार्यों में प्रमुख था, चुदाई से पूर्व वह दो बार तो अवश्य ही अपने पति के मूँह के भीतर झड़ती थी क्यों कि उससे कम में उसकी कामोत्तेजना का अंत हो पाना कतयि संभव नही हो पाता था. कुर्सी पर अपनी पलकें मून्दे बैठी ममता की गहरी तंद्रा को तोड़ते ऋषभ के वे अगले लफ्ज़ शायद अब तक के उसके सम्पूर्न बीते जीवन के सबसे हृदय-विदारक अल्फ़ाज़ बन जाते हैं और खुद ब खुद उसकी बंद आँखें क्षण मात्र में खुल कर उसके पुत्र के चेहरे को निहारने लगती हैं.

"उस मामूली सी भूल का इतना कठोर पश्‍चाताप मत करो मा! मत करो! अगर तुम्हे सच में ऐसा लगता है कि तुमने मुझे अपने से दूर कर दिया था तो आज, अभी तुम अपनी उस अंजानी भूल में सुधार कर सकती हो! मेरा अनुभव मुझसे चीख-चीख कर कह रहा है, अब तक तो निश्चित ही तुम्हारी चूत की दुर्दशा हो गयी होगी और जो किसी स्त्री के शरीर का सबसे संवेदनशील अंग होता है, मानो या ना मानो मा लेकिन मैं उसकी तकलीफ़ को यहाँ! ठीक अपने दिल में महसूस कर रहा हूँ"

ममता स्तब्ध रह गयी, इसलिए नही कि ऋषभ ने साहित्यिक शब्द योनि को आम भाषा में प्रचिलित चूत शब्द की अश्लील संगया दी वरण इसलिए कि उसका पुत्र उसकी व्यथा को समझ रहा था.

"तेरा अनुभव सही कहता है रेशू! मेरी योनि में बहुत दर्द है, उसके होंठ बेहद ज़्यादा सूज चुके हैं. चौबीसो घंटे रिस्ति रहती है, अत्यधिक जलन के मारे मैं ठीक से पेशाब भी नही कर पाती. कभी भीड़ में कपड़े गंदे होने का डर सताता है तो कभी गंदे हो जाने के बाद शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है" ममता ने सहर्ष अपने रोग से संबंधित अन्य लक्षणो को सांझा किया मगर मुख्य लक्षण सांझा नही कर पाती. कैसे कह देती कि चुदास ही उसके रोग का एक मात्र कारण है, पल प्रति पल वह स्वयं तो ऋषभ की नज़रो में निर्लज्ज साबित होती जा रही थी मगर पति की नपुंसकता का बखान कर पाना नामुमकिन था.

"मैं सब जानता हूँ लेकिन तुमने खुद बताया! मुझे बहुत सूकून मिला, कम से कम तुम्हे मुझ पर विश्वास तो है" ऋषभ ने मुस्कुरा कर कहा. उसका सारा ध्यान केवल ममता के कप्कपाते होंठो पर केंद्रित था, जिनमें उसे उसके सम्पूर्न शरीर के लगातार, तीव्रता से बदलते हुवे सारे भाव का समावेश नज़र आ रहा था.

"मुझे! मुझे उसे देखना होगा मा" बोलते हुवे ऋषभ हकला जाता है, लगा जैसे कहने भर से उसका लंड झड़ने की कगार पर पहुँच गया हो. अपने डेढ़ साल के करियर में उसने अनगिनत चूतो को देखा था. अपने गूँध अनुभव, आकर्षित व्यक्तित्व और वाक-प्रभाव से कितने ही सभ्य घरो की पतिव्रता और औरतों को नंगी हो जाने पर मजबूर कर चुका था. कुच्छ रंडी प्रवित्ती की औरतें तो बिना कहे अपने कपड़े उतार फैंकती थी तो कुच्छ को उसने कॅबिन के भीतर ही बुरी तरह से चोदा था मगर कुदरत ने यह कैसा अजीब खेल रचा जो आज उसे अपनी सग़ी मा से उसकी चूत देखने ज़िद करनी पड़ रही थी.


Contd.....

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