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माँ का इलाज -5

 अपडेट -5

हां मा! वह 4 दिन पहले अपने घर हयदेराबाद चली गयी. कह रही थी, अब वहीं अपना खुद का प्राइवेट क्लिनिक खोलेगी" ऋषभ ने अपनी मा के हैरत भरे चेहरे को विस्मय की दृष्टि से देखते हुए कहा.

"वैसे मा! क्या मैं जान सकता हूँ कि तुम्हे उससे क्या काम था ?" उसने प्रश्न किया. कुच्छ वक़्त पिछे जिस नकारात्मक सोच से उसका सामना हुवा था अब वो नकारात्मकता प्रबलता से अपने पाँव फ़ैलाने लगी थी.

"कुच्छ ख़ास नही! बस काफ़ी दिनो से उसे देखा नही था तो मिलने चली आई" ममता मेज़ की सतह पर अपने दाएँ हाथ के नाखूनो को रगड़ते हुवे बोली. उसकी आँखें जो अब तक अपने पुत्र की आँखों में झाँक कर उसके साथ वार्तालाप कर रही थीं, गहेन मायूसी, अंजाने भय की वजह से उसकी गर्दन समेत निच्चे झुक जाती हैं.

शीतल, ऋषभ की असिस्टेंट थी और ममता को अपने रोग से संबंधित परामर्श हेतु उससे विश्वसनीय पात्र कोई और नही जान पड़ा था. वैसे तो देल्ही में एक से बढ़ कर एक यौन चिकित्सक मौजूद हैं परंतु शरम व संकोची स्वाभाव के चलते कहीं और जाना उसे स्वीकार्य नही था. कैसे वह किसी अंजान शक्स के समक्ष अपने रोग का बखान करती, फिर चाहे वो शक्स कोई मादा चिकित्सक ही क्यों ना होती. सुरक्षा की दृष्टि से भी उसे यह ठीक नही लगा था, शीतल से वह औरो की अपेक्षाक्रत ज़्यादा परिचित थी और ऋषभ की मा होने के नाते वह शीतल पर थोड़ा बहुत दवाब भी डाल सकती थी.

"तुम शायद भूल रही हो मा! की एक सेक्सलोजिस्ट किसी साइकॉलजिस्ट से कम नही होता" ऋषभ ने कहा. उसकी नकारात्मक सोच पहले तक तो सिर्फ़ उसकी सोच ही थी परंतु जब ममता ने शीतल का नाम लिया तो वह लगभग पूरा ही माजरा समझ गया, उसकी मा और शीतल के दरमियाँ इतनी घनिष्ठता थी ही नही जो वह अपने ऑफीस से छुट्टी ले कर विशेष उससे मिलने मात्र को क्लिनिक तक चली आई थी.

"तुम्हारी उमर में अक्सर औरतो को सेक्स संबंधी प्राब्लम'स फेस करनी पड़ती हैं मा! लेकिन इसमें बुरा कुच्छ भी नही" स्पष्ट-रूप से ऐसा बोल कर वह ममता की गतिविधियों पर गौर फरमाने लगता है.

ऋषभ की बात सुन आकस्मात ही ममता की आँखें मुन्द गयी, अचानक उसे अपनी चूत में भयानक पीड़ा उत्पन्न होती महसूस हुई और अपनी कुर्सी पर वह असहाय दर्द से तड़पने लगी. चाहती थी कि फॉरन उसका हाथ उसकी अत्यंत रिस्ति चूत की सूजे होंठो को मसल कर रख दे, एक साथ अपनी पानको उंगलियों को वह बेदर्दी से अपनी चूत के भीतर घुसेड कर अति-शीघ्र उसका सूनापन समाप्त कर दे. अपने आप उसकी मुट्ठी कस जाती हैं, जबड़े भिन्च जाते हैं, वेदनाओ की असन्ख्य सुइयों से उसके शरीर-रूपी वस्त्र के टाँके उधड़ते जाते हुए से प्रतीत होने लगते हैं.

"हां रेशू! तूने बिल्कुल सही अनुमान लगाया बेटे! पर मैं खुद तुझसे कैसे कहूँ, तू तो मेरा बेटा है ना. नही नही! मुझे कुच्छ नही हुआ, मैं ठीक हूँ" क्रोध, निराशा, उदासी, उत्तेजना आदि कयि एहसासो से ओत-प्रोत ममता खुद को कोसे जा रही थी कि तभी ऋषभ की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूट गयी, विवशता में भी उसे अपनी पलकों को खोल कर पुनः अपनी गर्दन ऊपर उठा कर अपने पुत्र के चेहरे का सामना करना पड़ता है और जिसके लिए वह ज़रा सी भी तैयार नही थी. b3d34abd12373b0d61d58005435f145b

"तो कहो मा! तुमने मुझसे झूट क्यों बोला ? क्या तुम्हे अपने बेटे से ज़्यादा शीतल पर विश्वास है ?" ऋषभ ने पुछा.

"क्या अब मैं ऐसी निर्लज्ज मा बन गयी हूँ जिसके जवान बेटे को पता है कि उसकी मा अपने जिस्म की अधूरी प्यास की वजह से परेशान है. अरे! जिस उमर में उस मा को अपने पुत्र की शादी, उसके भविश्य के बारे में सोचना चाहिए वह बेशरम तो सदैव अपनी ही चूत के मर्दन-रूपी विचारो में मग्न रहती है" ममता ने कुढते हुए सोचा, हलाकी वाक-युध्ध के ज़रिए वह अब भी ऋषभ के अनुमान को असत्य साबित कर सकती थी परंतु उससे कोई लाभ नही होता बल्कि उसके पुत्र के प्रभावी अनुभव पर लांछन लगाने समतुल्य माना जाता.

"नही रेशू! ऐसी कोई बात नही" वह हौले से फुसफुसाई. उसके मन में ग्लानि का अंकुर फुट चुका था और उसकी वर्द्धि बड़ी तीव्रता से हो रही थी. अपने पुत्र दिल दुखा कर उसने ठीक नही किया था, उससे ना तो उगलते बन रहा था ना ही निगलते. पल प्रतिपल वह उसी ख़याल में डूबती जा रही थी, चाहकर भी उस विचार से अपना पिछा नही छुड़ा पा रही थी. उसके नज़रिए से था तो ऋषभ बच्चा ही पर इस तरह अपनी चोरी पकड़े जाने के भय एक पल के लिए ममता काँप सी गयी थी.

"क्या कुच्छ भी नही मा ?" उसने ममता के शब्दों को दोहराया और उल्टे उससे प्रश्न कर बैठता है. वह यह कैसे सहेन कर पाता कि जिन मर्ज़ो का वह खुद एक प्रशिक्षित वैद्य है स्वयं उसकी मा ही उसके क्षेत्र से संबंधित रोग से पीड़ित थी और संकोच-वश अपने बेटे से अपनी तड़प को सांझा भी नही कर पा रही थी. कोई रोगी तभी चिकित्सक के पास पहुँचता है जब उसका रोग असाध्य हो चुका हो, ख़ास कर यौन रोग की पीड़ा सिर्फ़ शारीरिक तौर पर नही नही अपितु मानसिक रूप से भी रोगी को प्रताड़ित करती है.

"मतलब! शीतल ...." ममता का चेहरा डर से पीला पड़ गया, कुच्छ पल अपना थूक गटाकने के उपरांत जब उसे अपने अत्यंत सूखे गले में तरावट महसूस हुई उसने अपना अधूरा कथन पूरा किया.

"शीतल पर तुझसे ज़्यादा विश्वास नही है रेशू"

"मतलब! शीतल .... शीतल पर तुझसे ज़्यादा विश्वास नही है रेशू" ममता ने क़ुबूल किया वरन उसे करना पड़ता है. किसी मा को अपने बच्चो से ज़्यादा दूसरो के बच्चो पर भरोसा हो, ऐसा कैसे संभव हो सकता है. हलाकी यह ज़रूर असंभव था कि वह इससे अधिक और कुच्छ भी अपने पुत्र से साथ सांझा नही कर सकती थी बल्कि करना ही नही चाहती थी. उसे तो अब याद भी नही कि अंतिम बार कब वह ऋषभ के शारीरिक संपर्क में आई थी. शारीरिक संपर्क का यह अर्थ कतयि नही कि उनके दरमियाँ कोई अमर्यादित, अनैतिक कार्य संपन्न हुवा हो अपितु एक मा का अपने बेटे के प्रति निश्छल प्रेम और बेटे का अपनी मा के प्रति मूर्खता-पूर्ण लाड. ऐसा भी नही था कि ममता ने कभी अपने शरीर पर ऋषभ के हाथो का स्पर्श ही ना महसूस किया हो , या उसने खुद अपने पुत्र के जिस्म को ना छुआ हो. एक निस्चित उमर तक उन दोनो के बीच नियमित आलिंगन, स्नान, अठखेलियाँ व बधाई चुंबनो का आदान-प्रदान होता रहा था परंतु वो बीता वक़्त उसके पुत्र की ना-समझी का अविस्मरणीय दौर था और जिसमें ना तो किसी मा को अपनी मर्यादाओं का ख़याल रहता है और उसके पुत्र के लिए तो उसके संसार की शुरूवात ही उसकी मा के नाम से होती है.

"ह्म्‍म्म" ममता के टुकड़ो में बाते कथन को सुनकर ऋषभ ने एक गहरी सान ली और अपने दोनो हाथो को कैंची के आकार में ढाल कर उसके अत्यंत सुंदर चेहरे को बड़ी गंभीरता-पूर्वक निहारने लगता है परंतु अब वह चेहरा सुंदर कहाँ रह गया था. कभी मायूस तो कभी व्याकुल, कभी विचार-मग्न तो कभी खामोश, कभी ख़ौफ़ से आशंकित तो कभी लाज की सुर्ख लालिमा से प्रफुल्लित. हां! मुख मंडल पर कुच्छ कम उत्तेजना के लक्षण अवश्य शामिल थे और जो ऋषभ की अनुभवी निगाहों से छुप भी नही पाते मगर चेहरे का बेदाग निखार, शुद्ध कजरारी आँखें, मूंगिया रंगत के भरे हुवे होंठ और उनकी क़ैद में सज़ा पाते अत्यधिक सफेद दाँत, तोतपुरि नाक और अधेड़ यौवन के बावजूद खिले-खिले तरो-ताज़ा गालो के आंकलन हेतु अनुभव की ज़रूरत कहाँ आन पड़नी थी और पहली बार उसने जाना कि किसी औरत के सही मूल्यांकन की शुरूवात ना तो उसके गोल मटोल मम्मो से आरंभ होती है और ना ही उभरे हुवे मांसल चूतडो से, चेहरा हक़ीक़त में उसके दिल का आईना होता है.

"तुमने दोबारा झूट बोला मा ?" उसने बताया.

"दोबारा! नही नही! मैने कहाँ! मैने मैने कोई झूट नही बोला रेशू, मैं सच कह रही हूँ" ममता हकला गयी, उसे अपने पुत्र द्वारा ऐसे अट-पटे प्रश्न के पुच्छे जाने की बिल्कुल उम्मीद नही थी, वह तो जैसे उसका मन पढ़ते जा रहा था.

"तो फिर सच कहो ?" इस बार ऋषभ की आँखों में क्रोध शामिल था और उनका जुड़ाव भी ठीक ममता की तीव्रता से हिलती पूतियों से था. एक यौन चिकित्सक किसी मनोचिकित्सक से कम नही होता क्यों कि यौन रोग के मरीज़ अक्सर शरम-संकोच से कयि ऐसे राज़ छुपाने का प्रयत्न करते हैं जिनके सर्व-साधारण होने के उपरांत उन्हे अपनी बदनामी का डर सताता है. ऋषभ बखूबी जानता था कि उसकी मा किसी विशेष परिस्थिति के बगैर कभी उससे अपनी पीड़ा का उल्लेख नही करेगी और वह उसी विशेष परिस्थिति की मजबूत बुनियाद तैयार करने में जुटा हुवा था. जिस तरह ग़लती हो जाने के पश्चात बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चे पर क्रोध जता कर उससे पुछ-ताछ किया करते हैं और अपरिपक्व वो बच्चा कभी भय से तो कभी झुंझलाहट में उस ग़लती से संबंधित सारी जानकारी उगल देता है. ऋषभ का क्रोध बनावटी अवश्य था मगर ममता कोई अपरिपक्व बच्ची तो ना थी. कड़ी मेहनत के बाद फल की प्राप्ति होती है और जिसकी शुरूवात वह कर चुका था किंतु फल मिलने में अभी काफ़ी वक़्त लगेगा इस बात से भी वह अच्छी तरह परिचित था.

"क्या मतलब" वह अपनी पुतलियों को तिरच्छा करते हुवे बोली ताकि सूर्य की अखद तपन समान ना झेल पाने योग्य अपने पुत्र की आँखों के एक-टक संपर्क से अपना बचाव कर सके.

"मैने सच ही तो कहा है रेशू, मुझे उस शीतल पर अपने बेटे से ज़्यादा भरोसा क्यों होगा भला ?" उसने ऐसा तथ्य पेश किया जिसमें ऋषभ के लिए विचारने लायक प्रश्न भी शामिल था.

"फिर सीधे मुझसे ही मिलने आ जाती मा! तुम्हे शीतल का बहाना लेने की कोई आवश्यकता नही थी" ऋषभ ने मुस्कुरा कर रहा, ममता के सवाल ने उसका मुश्क़िल काम आसान करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी.

"नही नही! तुझसे कैसे, तू! तू तो मेरा बेटा है रेशू और मैं ....." ममता के कथन को काट-ते हुवे ऋषभ बीच में भी बोल पड़ता है.

"इस कुर्सी पर बैठने के बाद अब मैं तुम्हारा बेटा नही रह गया मा! मैं सिर्फ़ एक सेक्षलॉजिस्ट हूँ और मेरा कर्म! मेरा कार्य-क्षेत्र मुझे इसकी इजाज़त नही देता कि मैं तुम्हे भी अपनी मा समझू" उसके धारा प्रवाह लफ्ज़ बेहद प्रभावी और जिसके प्रभाव से वाकयि ममता अचंभित रह जाती है.

"रेशू ने ठीक कहा! मैं एक मरीज़ की ही हैसियत से तो यहाँ आई थी बस ड्र. शीतल की जगह मेरा सामना मेरे बेटे से हो गया, क्या यही अंतर मुझे रोक रहा है कि मैं ड्र. ऋषभ को अपना बेटा मान रही हूँ ? अरे! माँ कहाँ रही हूँ वह सच में मेरा बेटा है" ममता ने मन ही मन सोचा, अभी भी संभावनाए उतनी प्रबल नही थी कि वह निर्लज्जता-पूर्ण तरीके से अपने पुत्र के समक्ष अपनी काम-पीपासा का बखान कर पाती.


Contd....

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