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एक अंतहीन सफर -2

 अपडेट -2

एक अंतहीन सफर


"नाम क्या है तुम्हारा " आरिफ ने उस टेक्सी ड्राइवर से पूछ ही लिया.

"जज.... जी साब बनिया बोलते है मेको "

"ये कैसा नाम हुआ?"

"अपुन को क्या मालूम आई बाबा इसी नाम से बोलते "

"कितनी उम्र होगी तुम्हारी, दिखने मे तो बच्चे लगते हो "

आरिफ टाइम पास कर रहा था जबकि साबी बाहर सन्नाटे मे ढलते सूरज को देखे जा रही थी.

धीमी पिली रौशनी उसके चेहरे की शोभा बढ़ा रही थी.

"अगले महीने 18 का हो जाऊंगा साब "

"वाह अभी 18 के भी नहीं लेकिन औरतों पर पीएचडी कर रखी है " असली मुद्दे की बात अब कही थी आरिफ ने.

"वो... वो.... वो साहिब " बनिया कुछ बोल ना सका उसकी घिघी बंध गई थी.

"वो... वो... सॉरी साब आपकी बात पे बोल गया था "

बातो ही बातो मे बस स्टैंड आ गया.


"लो साब आपकी मंजिल सामने होना मांगता "


चरररर..... करती गाड़ी रुक गई.

साबी आरिफ और बनिया तीनो टेक्सी से उतर चुके थे.


"ये.. ये.... यहाँ इतना सन्नाटा क्यों है, अभी तो 7 ही बजे है " साबी ने सामने के नज़ारे को देखते हुए घड़ी पे नजर घुमाई.

आरिफ भी हैरान था मुंबई जैसे शहर मे ऐसा सन्नाटा.


"क्या साब आपको मालूम नहीं क्या यहाँ बस की हड़ताल चल रही है पिछले दो दिनों से " बनिया ने टेक्सी से समान उतार आरिफ साबी के सामने जा लगाया.

लाजमी था साबी के चेहरे पर चिंता की लकीर बन आई थी.

जिसे आरिफ ने पहचान लिया था.

"तुम क्यों परेशान होती हो अपनी बुकिंग तो प्राइवेट वॉल्वो बस मे है ना, होने दो हड़ताल "


सामने ही येलो बस का ऑफिस था, जहा आरिफ ने वॉल्वो बस मे सीट बुक की थी.

आरिफ साबी उस ओर बढ़ चले.

"भाई साहेब ये बस 1709 मुंबई to पुणे मे मेरी दो सीट थी 8बजे की.

"अब नहीं है " काउंटर के अंदर से एक गैरजिम्मेदाराना ओर आलस भरी आवाज़ ने जवाब दिया.

"अब नहीं है मतलब " आरिफ ओर साबी हैरान थे.


"अरे हड़ताल है, कोई बस नहीं चलेगी " सीधा सा जवाब पा कर आरिफ ठगा सा रह गया.

साबी का चेहरा लटक आया था. "अब?"


"अब क्या मै हूँ ना साहेब " पीछे से बनिया की वही चाहचाहती आवाज़ आई.

"ओह मै तो भूल ही गया था तुम्हे, अच्छा तुम छोड़ दो"

आरिफ को उम्मीद की किरण नजर आई.


"साब बस यूनियन का अध्यक्ष बहुत काइया है, अपनी बात मनवाने के लिए बस हड़ताल की है इसका मतलब वो किसी टेक्सी को भी नहीं जाने देगा "


"फिर क्या बात हुई "


"हुई ना बात, ये बनिया किस मर्ज की दवा है, मेरे पास है ना आईडिया "


"क्या आईडिया है तुम्हारी टेक्सी तो जा नहीं सकती?"


" साब अभी एक बस है 8.30 बजे की, उसमे चले जाओ लेकिन थोड़ा खर्चा लगेगा "

बनिया ने दाँत चियार दिए.


"अभी तो तुमने कहाँ बस की हड़ताल है फिर कहाँ से आ गई बस " काफ़ी देर से चुप खड़ी साबी इस बार झाल्ला के बोल पड़ी.


"मैडम ये शंकर दादा की बस है,  पूर्व यूनियन अध्य्क्ष, अभी वाले से उसकी बिल्कुल नहीं बनती इसलिए वो अपनी बस चला रहा है"

बनिया ने फुसफुसाते हुए कहाँ जैसे कोई राज की बात बता रहा हो.


"अरे जो हो हमें क्या? तुम इंतेज़ाम करा दोगे तो बोलो " आरिफ परेशान सा था उसे इस मुसीबत से निकलना था.


बनिया ने तुरंत समान उठाया और बस चल पड़ा " आ जाओ साहब पीछे पीछे"


जैसे जैसे आरिफ साबी बनिया के पीछे चलते गए.

सामने एक बस की आकृति नजर आने लगी जो एक खम्बे की पिली रौशनी के निचे खड़ी थी.

"हहाँ.... भाई पुणे.... पुणे.... पुणे.... लास्ट बस है..... पुणे...."

सामने का नजारा देख साबी का दिल बैठा जा रहा था.


सामने एक लाल कलर की डब्बेनुमा खटाला बस खड़ी थी, उसके आस पास भीड़ ऐसी थी जैसे गुड़ पर चीटिया.


" लो जी साब ये सामने बस है चले जाइये " बनिया ने जैसे अहसान किया हो.

"यययय..... ये क्या इसमें कैसे जायेंगे, जगह कहाँ है?"

साबी जैसी औरत के लिए ये नजारा बड़ा ही भयानक था.

उसे वॉल्वो, ac ट्रैन से सफर की आदत थी, ये नजारा किसी नर्क के समान था.


"जो है यही है साब देख लो, मुझे मेरा भाड़ा दो मै चलता हुआ " बनिया ने रास्ता दिखा दिया था उसे आगे कोई लेना देना नहीं था.


साबी को जैसे सांप सूंघ गया हो क्या कहती क्या नहीं.

"आप घर पे किसी को बोल के कार क्यों नहीं मंगवा लेते " साबी ने वाजिब बात की.


"शादी का घर है कौन फ्री है कौन नहीं, अब जितनी देर मे कोई वहा से यहाँ आएगा उतनी देर मे तो हम पुणे पहुंच जायेंगे " आरिफ ने साबी की दलील ख़ारिज कर दी.


"ललललल..... लेकिन इस बस मे घुसेंगे कैसे?" साबी ने आरिफ से धीरे से फुसफुसाया.


"मै हूँ ना " जवाब बनिया ने दिया

सभी समस्या का हल था जैसे उसके पास.


"मेरी पहचान है यहाँ मै सीट दिला दूंगा लेकिन 5000रूपए लगेंगे " बनिया सीधा बनिया गिरी पे आ गया था.


"पा... पांच हज़ार पागल है क्या इस खटाला बस के 5000rs " आरिफ भी तुनक गया इस बार.


"देखो साब यही एक रास्ता है यही एक लास्ट बस है, जाना है तो जाओ आगे का कुछ पता नहीं, टेक्सी बस कुछ मिलनी नहीं है, ना कोई रेंटल कार, ये रास्ता ब्लॉक ही समझो अभी के लिए "


यूनियन वाले अपनी बात मनवाये बिना कुछ नहीं चलने देंगे, मै आपके भले की बात कर रहा हूँ, मैडम को रात मे ले के कहाँ घूमोगे " इस बार बड़ी ही हसरत भरी निगहि से बनिया ने साबी को ऊपर से निचे देखा

ना जाने क्या टटोल रहा था.


आरिफ भी अब समझ चूका था उसका नाम बनिया क्यों है.

मरता क्या ना करता.


"ठीक है चलो " साबी और आरिफ ने हामी भर दी.

आरिफ ने 500 के 10 कड़क नोट बनिया की हथेली पर थमा दिया.

"अभी आया साब "

कुल 5मिनट मे बनिया वापस लौट आया.

"क्या हुआ?"

"कुछ नहीं हो गया इंतेज़ाम, सीट मिल गई है, आइये "


आरिफ तेज़ी से बस की ओर बढ़ चला साबी भी तेज़ गति मे थी लेकिन हाई हील की वजह से उसका बैलेंस बार बार बिगड़ जाता, ऊपर से ये भारी नितम्भ एक दूसरे को टक्कर दे कर झगड़ पड़ते.


"देख तो विलायतन को" चलते चलते साबी के कानो मे ये आवाज़ पड़ ही गई पास ही दो आदमी बीड़ी सुलगाते उस हसीन लम्हे का लुत्फ़ ले रहे थे.


"कैसे गांड मटका के चल रही है "

वैसे ये बाते आम थी साबी के लिए, ये फ़तवे ये लफ्ज उसे बहुत बार सुनने को मिले थे,

सुनती भी क्यों ना तारीफ गन्दी ही सही तारीफ तो है.

आरिफ आगे आगे भागे जा रहा था, साबी पीछे थी ना जाने क्यों अचानक से उसकी चाल मे और भी मादकता आ गई थी.

ये गन्दी तारीफ का असर था या हील वाली सैंडल का ये साबी ही जाने.

लेकिन पीछे चलते बनिया की हालत जरूर ख़राब थी वो अपनी जिंदगी के हसीन पलो को देख रहा था, औरते तो बहुत देखि लेकिन इस जैसी सुडोल, टाइट नहीं देखि.

इस गहमा गहमी मे सभी के अंग अपने आकर को छुपा पाने मे असमर्थ थे.


आनन फ़ानन मे ही तीनो बस के दरवाजे तक जा पहुचे.

"यहाँ तो बहुत भीड़ है " आरिफ झुंझुलाया.


"साब आप बस अंदर घुसो सीट मैंने बुक कर दी है "


आरिफ अपने कॉलेज समय मे ऐसी भीड़ भरी बस का सफर कर चूका था लेकिन साबी के लिए क्या? उसने कभी ऐसा सफर किया था या नहीं ये तो वही जाने.

"चलिए मैडम जल्दी चढ़िए " अचानक से बनिया का पूरा जिस्म साबी के पीछे जा चिपका.

"ये..... ये.... ये...." बस साबी इतना ही बोल सकी भीड़ के धक्को ने ना उसे बोलने का मौका दिया ना पीछे देखने का..


आरिफ इस भीड़ को चिरता अंदर दाखिल हो चूका था.

गेट पर साबी खड़ी थी, कभी किसी सहारे को पकड़ चढ़ने की कौशिश करती तो, वो भी फिसल जाता.

हर कोई उसी बस मे जाना चाहता था.


"मैडम जी ऐसे नहीं होगा " बनिया ठीक साबी के पीछे आ उसकी गांड से जा चिपका.

"आप ऊपर चढ़िए मैडम " बनिया ने अपनी कमर का हिस्सा आगे को धकेल दिया.

साबी अभी भी असफल हुई लेकिन कुछ अहसास उसे जरूर हुआ एक भारी सी बेलनाकर चीज उसके नितम्भो से घिसती हुई जांघो पे टकरा जाती.

चढ़ने की कौशिश मे ये किस्सा दो तीन बार दोहरा दिया गया.

साबी को ये सब समझ से परे था, बस एक गुदगुदी सी उसकी रीढ़ पर दौड़ जाती.

"क्या मैडम पहली बार है क्या आपका " इस बार बनिया जरा आवेश मे था.

अचानक ही साबी को अपनी गांड के दोनों हिस्से किसी मजबूत शिकांजे मे फसते से महसूस हुए.

"आअह्ह्ह..... ऊउच....."

"चलिए मैडम पैर आगे बड़ाइये" बनिया ने दोनों हथेली से साबी की गांड को भींच ऊपर को धकेल दिया था.

साबी की तो जान हलक मे थी, जो भी था थी तो वो स्त्री ही पहली बार किसी गैर मर्दाने स्पर्श को वो अपनी गांड पे महसूस कर रही थी.

ऊपर से वो हाथ उसकी गांड को अलग अलग दिशा मे धकेलते हुए ऊपर को उठाये जा रहे थे.


गांड की दरारे एक दूसरे से बिछड़ रही थी, गाउन के अंदर ही सही लेकिन इस बिछड़न ने एक कामुक दरार पैदा कर दी थी जहा दो अमृत कुंड पाए जाते थे.

हालांकि इस दुर्लभ दर्शन को पाना नामुमकिन था, लेकिन जिसके साथ ये हुआ उसके लिए नहीं.

सभी की हवा टाइट हो चली थी,

उसने पहली बार ऐसा मर्दाना प्रहार महसूस किया था फॉस्वरुप उसके रोंगटे खड़े हो गए थे, आंखे बंद होने को आई ही थी की एक मजबूत हाथो का झटका सा महसूस हुआ.

"जल्दी आओ साबी " आरिफ ने साबी का हाथ पकड़ अंदर को खिंच लिया.

साबी आखिर बस के अंदर थी.

" हमफ़्फ़्फ़.... हमफ़्फ़्फ़.... साब आपका सामान ऊपर रख दिया है, आपकी सीट ये है.

बनिया ने जैसे अपना फर्ज़ निभाया हो.

"मैडम आप भी ना मेरे हाथ दर्द कर गए " बनिया ने अपने हाथो को झटकते हुए कहाँ.

"साबी अभी भी शून्य मे थी, क्या हो रहा है उसे पता नहीं वो बस के अंदर कैसे आई कुछ नहीं पता "


गर्मी पसीने से दोनों तरबतर थे, हालांकि अपनी सीट पर थे.


कैसा कटेगा साबी का ये मुंबई to पुणे का बस सफर?

बने रहिये सफर जारी है....


Contd...

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