अपडेट -2
मेरी माँ कामिनी
कहानी का पहला हिस्सा यहाँ पढ़े
कल रात जो हुआ, उसके बाद घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था। पापा तो सुबह-सुबह बिना किसी से नज़र मिलाए ऑफिस निकल गए थे, जैसे रात कुछ हुआ ही न हो। लेकिन माँ... माँ की आँखों में सूजन थी और चाल में थोड़ी लचक, शायद पापा की बेमतलब की मार का असर अभी भी जिस्म पर था।
लेकिन कामिनी एक भारतीय नारी थी, घर तो चलाना ही था।
दोपहर के करीब 12 बज रहे थे।
"बंटी, तैयार हो जा, राशन खत्म है और मुझे कुछ अपने लिए भी लेना है, मार्किट चलते हैं," माँ ने अपनी रोज़मर्रा की आवाज़ में कहा, लेकिन वो खनक गायब थी, सिर्फ एक जिम्मेदारी का भाव था माँ की आवाज़ मे.
कारण मे जनता ही था, कल रात मेरे लिए भी मुश्किल ही थी.
माँ तैयार होकर निकलीं। आज उन्होंने फिरोज़ी रंग की साड़ी पहनी थी। ब्लाउज का गला पीछे से काफी गहरा था और बाहें (sleeves) छोटी थीं। 36 साल की उम्र और एक बच्चे की माँ होने के बावजूद, उनका बदन किसी कसी हुई 25 साल की लड़की जैसा था। ख़ासकर उनकी छाती, जो ब्लाउज में मुश्किल से कैद थी, और उनकी चौड़ी कमर।
मै माँ को देख के हैरान हो जाता था, माँ किस किस्म की औरत है, रात मे इतना कुछ झेलती है, और दिन के उजाले मे ऐसी दिखती है.
, वैसे देखा जाये तो मेरी माँ सुन्दर तो है., माँ का जिस्म आज भी किसी जवान लड़की को मात दे सकता है.
हमारे घर से मेन मार्किट थोड़ी दूर था। धूप तेज़ थी, इसलिए हमने गली के बाहर से एक ऑटो रिक्शा रोका।
ऑटो में पीछे की सीट पर पहले से एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था।
"आ जाओ मैडम," ऑटो वाले ने रोका।
"बेटा, तू आगे आ जा मेरे पास, मैडम को पीछे बैठने दे," ड्राइवर ने मुझे इशारा किया।
मैं ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठ गया, और माँ पीछे उस आदमी के साथ विंडो साइड (खिड़की की तरफ) बैठ गईं।
ऑटो चल पड़ा। हवा के झोंकों से माँ के चेहरे पर लटें आ रही थीं, जिसे वो बार-बार ठीक कर रही थीं। मैं साइड मिरर से माँ को देख पा रहा था। वो उदास लग रही थीं, खिड़की से बाहर देख रही थीं।
रास्ते में 'लाल चौक' वाला नुक्कड़ आया। यह इलाका थोड़ा बदनाम था क्योंकि यहाँ एक देशी शराब का ठेका था। दिन हो या रात, यहाँ हमेशा पियक्कड़ों की भीड़ लगी रहती थी।
जैसे ही ऑटो वहाँ धीमे हुआ, दो आदमी लड़खड़ाते हुए ऑटो की तरफ लपके। उनके कपड़े मेले थे, और चाल से ही लग रहा था कि अभी-अभी 'चढ़ा' कर आए हैं।
"ए भाई, रोक... हमें भी आगे तक जाना है," एक ने ऑटो की रॉड पकड़ते हुए कहा।
माँ ने तुरंत विरोध किया, "भैया, जगह नहीं है, चलो आगे।"
माँ को शायद उन शराबियों को देखकर कल रात का मंजर याद आ गया होगा। उन्हें शराबी आदमियों से नफरत सी हो गई थी।
लेकिन ऑटो वाला लालची था। "अरे मैडम, एडजस्ट कर लो ना, बस यहीं आगे पुलिया तक छोड़ना है। किराया कम कर दूँगा आपका।"
इससे पहले कि माँ कुछ और बोलतीं, वो दोनों शराबी जबरदस्ती अंदर घुस गए।
पीछे की सीट पर अब चार लोग हो गए थे—माँ (खिड़की की तरफ), फिर वो शराबी, फिर उसका साथी, और कोने में वो पुराना सवारी।
भीड़ बहुत ज्यादा हो गई थी।
माँ बिलकुल सिमट कर बैठ गईं। उन्होंने अपना पर्स अपनी छाती के पास कस लिया था।
लेकिन वो शराबी, जो माँ के ठीक बगल में बैठा था, उसने जानबूझकर अपनी टांगें फैला लीं। उसकी जांघ माँ की जांघ से सट रही थी।
उसके मुँह से कच्ची, सस्ती शराब और बीड़ी की मिली-जुली बदबू आ रही थी। साथ ही पसीने की एक तीखी गंध।
नफरत से माँ ने अपनी नाक सिकोड़ ली। यह वही बदबू थी जो पापा से आती थी। लेकिन... यह बदबू पापा की बदबू से कुछ अलग भी थी। पापा की बदबू में 'कमज़ोरी' थी, लेकिन इस आदमी की गंध में एक अजीब सा जंगलीपन था। एक पराये, अनजान मर्द की गंध।
माँ का शरीर अकड़ गया था। मैं शीशे में देख रहा था कि वो असहज हो रही हैं।
सड़क खराब थी और ऑटो वाला भी जैसे जानबूझकर गड्ढों में कुदा रहा था।
झट... झटक...
जैसे ही ऑटो एक गड्ढे में कूदा, वो शराबी पूरी तरह माँ के ऊपर झूल गया।
उसका बाज़ू और उसकी खुरदरी कोहनी माँ के साड़ी में कसे हुए, उभरे हुए स्तन (boobs) से जोर से रगड़ खा गई।
माँ के मुँह से एक हल्की सी "उफ्फ" निकली।
"देखकर भाई..." माँ ने गुस्से में कहा और खुद को और खिड़की से चिपका लिया।
"माफ़ करना भाभीजी... रोड खराब है," शराबी ने दाँत निपोरते हुए कहा। उसकी नज़रें माँ के चेहरे पर नहीं, बल्कि माँ के ब्लाउज के उस हिस्से पर गड़ी थीं जहाँ से उनकी छाती का गोरा मांस झलक रहा था।
उसने माफ़ी मांगी, लेकिन पीछे हटने के बजाय, अपनी कोहनी को वहीं टिकाए रखा।
ऑटो फिर चला। इंजन की थरथराहट पूरी बॉडी में हो रही थी। माँ के स्तन उछल उछल कर बहार निकलने को बेताब हो जाये थे.
शराबी की कोहनी अब लगातार माँ के दाहिने स्तन के साइड वाले हिस्से को दबा रही थी। ब्लाउज टाइट होने की वजह से माँ का मांस वहां से फूला हुआ था, जो बहुत नरम था।
हर झटके पर वो सख्त कोहनी उस नरमी में धंस जाती।
कामिनी को गुस्सा आ रहा था। उसे उस आदमी को थप्पड़ मार देना चाहिए था। उसे चिल्लाना चाहिए था।
लेकिन... उसने ऐसा नहीं किया।
गुस्से के उस परत के नीचे, उसके जिस्म में एक अजीब सी हलचल होने लगी थी।
सालों से उसका पति उसके पास नहीं आया था। कल रात भी पापा ने उसे मारा था, छुआ नहीं था। उसका जिस्म स्पर्श का भूखा था—चाहे वो स्पर्श कैसा भी हो।
उस शराबी की कोहनी की रगड़ से माँ के पूरे बदन में एक मीठी-मीठी, सिहरन दौड़ने लगी।
उन्हें घिन आ रही थी, पर साथ ही उनकी जांघों के बीच एक गीलापन भी महसूस होने लगा था।
‘ये क्या हो रहा है मुझे?’ माँ ने मन ही मन सोचा। ‘ये गंदा आदमी मुझे छू रहा है और मुझे... मुझे अच्छा लग रहा है?’
वो शराबी भी समझ गया था कि 'भाभीजी' कुछ बोल नहीं रही हैं। उसका हौसला बढ़ गया।
उसने अपना हाथ घुटने पर रखा, लेकिन उसका बाज़ू अब पूरी तरह माँ के स्तन से सट गया था। वो ऑटो के हिलने के बहाने, अपनी बांह को हल्का-हल्का ऊपर-नीचे करने लगा, जैसे अनजाने में माँ के चूचियों को सहला रहा हो।
माँ ने अपनी आँखें मूंद लीं। उन्होंने अपने पर्स को और जोर से भींच लिया।
मैं आगे बैठा था, बेखबर कि पीछे मेरी माँ के साथ क्या हो रहा है। मैं तो बस यही देख रहा था कि माँ का चेहरा लाल पड़ गया है—शायद गर्मी से, या गुस्से से।
लेकिन मैं नहीं जानता था कि वो लालिमा शर्म और एक दबी हुई हवस की थी।
माँ की साँसें थोड़ी तेज़ हो गई थीं। उनका सीना ऊपर-नीचे हो रहा था, जिससे वो शराबी को और ज्यादा रगड़ने का मौका मिल रहा था।
नुक्कड़ से मार्किट का रास्ता सिर्फ़ 15 मिनट का था, लेकिन माँ के लिए वो 15 मिनट किसी तूफ़ान से कम नहीं थे। एक ऐसा तूफ़ान जिसने उनकी बरसों की जमी हुई बर्फ को पिघलाना शुरू कर दिया था।
जब मार्किट आया और ऑटो रुका, तो वो शराबी पहले उतरा। उतरते वक़्त उसने जानबूझकर अपना हाथ माँ की जांघ पर टिकाकर सहारा लिया।
"धन्यवाद भाभीजी," उसने एक गंदी मुस्कान के साथ कहा और भीड़ में गायब हो गया।
माँ कुछ पल तक ऑटो में ही बैठी रहीं, जैसे सुन्न हो गई हों।
"माँ? उतर जाओ, आ गया मार्किट," मैंने आवाज़ दी।
माँ हड़बड़ा कर उतरीं। उन्होंने अपनी साड़ी ठीक की, पल्लू को कसकर ओढ़ा। उनका चेहरा पसीने से भीगा था। वो मुझसे नज़रें नहीं मिला पा रही थीं।
उन्हें लग रहा था कि वो अपवित्र हो गई हैं, लेकिन उनका जिस्म अभी भी उस शराबी के स्पर्श की झनझनाहट को महसूस कर रहा था। उनकी चूत में एक अजीब सा मीठा दर्द उठने लगा था, जो कल रात पापा की मार से नहीं, बल्कि आज उस अनजान मर्द की रगड़ से जागा था।
ऑटो से उतरकर हम मार्किट की भीड़भाड़ वाली संकरी गली में दाखिल हुए। दोपहर की चिलचिलाती धूप थी, और उमस इतनी कि साँस लेना भारी हो रहा था।
माँ मेरे बगल में चल रही थीं, लेकिन उनकी चाल आज कुछ अलग थी। वह सामान्य से थोड़ा धीरे चल रही थीं और बार-बार अपनी साड़ी को पीछे से ठीक कर रही थीं।
कामिनी का दिमाग सुन्न था, लेकिन उसका जिस्म पूरी तरह जाग चुका था। ऑटो में उस शराबी की कोहनी की रगड़ ने उसके बदन में एक ऐसी आग सुलगा दी थी जो अब बुझने का नाम नहीं ले रही थी।
चलते वक़्त उसे महसूस हो रहा था कि उसकी दोनों जांघों के बीच एक चिपचिपा गीलापन जमा हो गया है। साड़ी और पेटीकोट का कपड़ा उसकी जांघों के बीच फंस रहा था।
हर कदम के साथ उसकी भरी हुई, सुडौल जांघें आपस में रगड़ खा रही थीं।
पच... पच... की एक बहुत ही धीमी, गीली रगड़ उसे खुद महसूस हो रही थी।
कामिनी को खुद पर घिन आ रही थी और हैरानी भी।
'हे भगवान, ये मुझे क्या हो गया है? उस गंदे, बदबूदार शराबी के छूने से मैं... मैं गीली हो गई? छी...' उसने मन ही मन खुद को कोसना चाहा।
लेकिन सच यह था कि वह गीलापन सिर्फ़ उस शराबी की वजह से नहीं था। यह उस बरसों की प्यास का नतीजा था जो कल रात पति की गालियों और आज उस अनजान स्पर्श से फूट पड़ी थी। उसकी चूत अब एक स्वतंत्र अस्तित्व बन गई थी, जिसे बस 'भरने' की ज़रूरत थी।
जल्द ही राशन की दुकान आ गई, जहाँ से हम लोग आम तौर पर समान लिया करते थे.
"बंटी, तू लिस्ट निकाल, मैं सामान बोलती हूँ," माँ ने पसीने से भीगे माथे को पोंछते हुए कहा।
हम 'गुप्ता जनरल स्टोर' पर पहुँचे। दुकान पर काफी भीड़ थी। पसीने की गंध और मसालों की महक मिली-जुली आ रही थी।
माँ ने दुकानदार को चीनी, दाल, तेल वगैरह का ऑर्डर दिया।
दुकानदार, गुप्ता जी, जो करीब 50 साल के होंगे, चश्मा लगाए हुए थे। उनकी नज़रें बार-बार सामान तौलते हुए माँ के भीगे हुए ब्लाउज पर जा रही थीं। माँ का पसीना उनके सीने (cleavage) में चमक रहा था, और ऑटो के सफर के बाद उनकी साड़ी थोड़ी अस्त-व्यस्त हो गई थी।
सामान पैक हो रहा था, लेकिन माँ के चेहरे पर एक बेचैनी थी। उन्हें कुछ और भी लेना था, लेकिन शायद शर्म आ रही थी।
तभी उनके दिमाग में कल रात की वो कड़वी याद कौंध गई।
रमेश की वो शराबी आवाज़ गूंजी— "साली ये क्या चुत का जंगल बना रखा है... कल साफ़ कर लेना इसे।"
कामिनी सिहर उठी। उसे याद आया कि अगर आज उसने वो 'जंगल' साफ़ नहीं किया, तो रात को फिर वही गालियाँ, वही मार-पिटाई होगी। पति चाहे नामर्द हो, लेकिन उसका हुक्म तो मानना ही था।
माँ ने हिम्मत जुटाई।
"गुप्ता जी..." माँ की आवाज़ थोड़ी दबी हुई थी।
"जी भाभीजी? और क्या चाहिए?" गुप्ता जी ने अपनी लार घोंटते हुए पूछा।
माँ ने इधर-उधर देखा कि कोई सुन तो नहीं रहा। मैं बगल में ही खड़ा था।
"वो... वो..एक.. एक....'वीट' (Veet) क्रीम भी दे देना।"
मेरे कान खड़े हो गए। मुझे पता था कि वीट किस काम आती है—अनचाहे बाल हटाने के लिए। औरतों के विज्ञापनों में देखा था।
"कौन सी भाभीजी? बड़ी वाली?" गुप्ता जी ने रैक से एक गुलाबी डिब्बा निकाला।
"हाँ, वही दे दो," माँ ने नज़रें झुका लीं।
गुप्ता जी ने वो पैकेट काउंटर पर रखा। उनकी आँखों में एक चमक थी। वो समझ रहे थे कि भाभीजी को आज बाल साफ़ करने की ज़रूरत क्यों पड़ी है। जरूर आज रात कुछ 'खास' होने वाला है।
"और कुछ?" गुप्ता जी ने मुस्कुराते हुए पूछा, उनकी नज़र माँ के पेट और नाभि के आस-पास डोल रही थी।
"नहीं, बस बिल बना दो," माँ ने जल्दी से कहा।
मैंने देखा माँ ने वो गुलाबी डिब्बा सबसे पहले उठाया और जल्दी से अपने पर्स के अंदर डाल लिया, जैसे कोई चोरी का माल हो।
मेरे दिमाग में कल रात वाली बात घूम गई— "तुझे चूत के बाल काटने में क्या दिक्कत होती है?"
तो माँ ने पापा की बात मान ली थी। वो आज अपनी... 'वहाँ' की सफाई करने वाली थीं।
एक बेटे के तौर पर यह सोचना बहुत अजीब था, लेकिन साथ ही मेरे अंदर भी एक अजीब सी जिज्ञासा जाग रही थी।
मैं अपनी माँ को सिर्फ़ 'माँ' नहीं, बल्कि एक 'औरत' के रूप में देखने लगा था, जिसका एक जिस्म है, बाल हैं, और जिसे 'साफ़' करने की ज़रूरत पड़ती है।
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सामान लेकर हम बाहर निकले। धूप और तेज़ हो गई थी।
माँ के चलने की रफ़्तार और धीमी हो गई थी।
उनकी जांघों के बीच का वो गीलापन अब शायद बढ़ गया था। वीट खरीदने के बाद, उनके दिमाग में अब बस यही चल रहा था कि घर जाकर उन्हें अपने सबसे निजी हिस्से को नंगा करना है, उस पर क्रीम लगानी है, और उसे चिकना करना है।
यह ख्याल ही कामिनी को उत्तेजित करने के लिए काफी था।
वह सोच रही थी कि जब वह अपनी टांगें फैलाकर, अपनी उंगलियों से वो क्रीम अपनी चूत पर लगाएगी, तो कैसा महसूस होगा?
उसकी चूत, जो अभी गीली है, क्या क्रीम की ठंडक से और फड़फड़ाएगी?
"माँ, रिक्शा कर लें?" मैंने पूछा, क्योंकि माँ बहुत धीरे चल रही थीं।
"हाँ... हाँ बेटा," माँ ने चौंकते हुए कहा, "मुझसे चला नहीं जा रहा। बहुत... बहुत गर्मी है।"
गर्मी तो थी, लेकिन कामिनी की जांघों के बीच जो घर्षण हो रहा था, उसने उसे पैदल चलने लायक नहीं छोड़ा था। उसे जल्द से जल्द घर पहुँचकर अपनी साड़ी उतारने की बेताबी थी।
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ऑटो घर के ठीक सामने वाले गेट पर रुका। दोपहर के 1 बज रहे थे, गली में सन्नाटा था।
धूप सीधी सिर पर थी। बंटी ने फुर्ती दिखाई और सामान के थैले उठाकर नीचे उतरा।
"आ जाओ मम्मी," उसने कहा और गेट खोलने आगे बढ़ गया।
कामिनी ऑटो से उतरी। उसका शरीर पसीने और चिपचिपाहट से भरा हुआ था। ऑटो वाले को पैसे देने के लिए वह पर्स टटोल ही रही थी कि उसकी नज़र अचानक गेट के पास बने चबूतरे की तरफ गई।
वहाँ, दीवार की छाया में, एक आदमी बेसुध पड़ा था।
मैले कपड़े, बिखरे बाल, और मुँह से बहती लार। वह कोई शराबी था जो शायद पास वाले ठेके से पीकर यहाँ छाया देख लुढ़क गया था।
शराबियों को देखना कामिनी के लिए नई बात नहीं थी, वह नाक सिकोड़कर आगे बढ़ने ही वाली थी कि उसकी नज़र उस शराबी के निचले हिस्से पर जाकर अटक गई।
शायद गर्मी की वजह से या नशे में करवट लेते वक़्त, उस शराबी की चेकदार लुंगी पूरी तरह ऊपर उठ गई थी—जांघों से भी ऊपर, पेट तक।
और वहाँ... उस शराबी की काली, गंदी जांघों के बीच, कुछ ऐसा था जिसने कामिनी के पैरों को ज़मीन में गाड़ दिया।
वह नंगा था। उसने अंदर कुछ नहीं पहना था।
और उसकी जांघों के बीच, एक विशाल, काला, लंबा और मोटा लंड अचेत अवस्था में पड़ा था।
वह लंड सुस्त था, लेटा हुआ था, लेकिन उसका आकार कामिनी की सोच से परे था। वह काला मूसल उसकी बाईं जांघ पर लटक रहा था, उसका मोटा, मशरूम जैसा सुपाडा aजांघ की त्वचा पर टिका था।
धूप और छाया के खेल में वह अंग किसी अजगर जैसा लग रहा था।
कामिनी का कलेजा धक से रह गया।
‘हे भगवान... ये... ये क्या है?’
उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकली, लेकिन उसकी चूत ने जवाब दे दिया।
एक ही पल में, कामिनी की योनि ने अंदर से पानी की एक तेज पिचकारी छोड़ दी। उसे महसूस हुआ जैसे उसके अंदर कोई बांध टूट गया हो। पेटीकोट और जांघें उस गर्म स्राव से एकदम लथपथ हो गईं।
उसने आज तक सिर्फ़ अपने पति का देखा था—छोटा, सिकुड़ा हुआ, और बेजान।
एक दम से उसके जहन मे दोनों लंडो की तुलना आ कर निकल गई, इस शराबी के मरे हुए लंड के आगे उसके पति का जिन्दा लंड भी बच्चा ही था.
उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक मर्द का औजार इतना बड़ा, इतना भयानक भी हो सकता है। वो भी एक मामूली शराबी का?
उसकी नज़रें उस लंड से हट ही नहीं रही थीं। उसे घिन आनी चाहिए थी, लेकिन उसे एक अजीब सा आकर्षण महसूस हो रहा था। मन कर रहा था कि झुककर देखे कि क्या यह सच है।
"मम्मी? चले?" बंटी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
बंटी गेट के अंदर जा चुका था। उसने उस शराबी को देखा भी नहीं था, या शायद उसके लिए यह रोज़ की बात थी कि कोई न कोई शराबी वहाँ पड़ा ही रहता है।
कामिनी हड़बड़ा गई।
"हा... हाँ... आ रही हूँ," उसने जल्दी से नज़रें हटाईं, लेकिन वो तस्वीर—वो काला, लंबा मांस का टुकड़ा—उसकी आँखों में छप गया था।
वह कांपते पैरों से घर के अंदर दाखिल हुई।
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घर के अंदर भी कामिनी को सांस नहीं आ रही थी। उसका गला सूख रहा था और दिल हथौड़े की तरह बज रहा था।
बंटी सीधे किचन में सामान रखने चला गया और फिर अपने कमरे में घुस गया।
कामिनी लड़खड़ाते कदमों से अपने बेडरूम में आई।
उसने अपना पर्स बिस्तर पर फेंका और खुद धम्म से बिस्तर पर निढाल होकर गिर गई।
उसका पूरा शरीर थरथरा रहा था।
‘छि... कामिनी तू कितनी गिर गई है... एक शराबी का नंगा बदन देखकर आ रही है... तू संस्कारी औरत है... माँ है...’ उसका दिमाग उसे धिक्कार रहा था।
लेकिन उसका जिस्म? उसका जिस्म उस काले लंड की छवि को बार-बार याद कर रहा था। उसे अपनी जांघों के बीच एक खालीपन महसूस हो रहा था, एक ऐसा खालीपन जिसे भरने के लिए शायद वैसा ही कुछ चाहिए था जो बाहर पड़ा था।
उसका बेडरूम पहली मंज़िल पर था। उसकी खिड़की ठीक उसी गली और उसी चबूतरे के ऊपर खुलती थी।
कामिनी का मन हुआ कि एक बार... बस एक बार और देख ले।
'नहीं... पागल मत बन... कोई देख लेगा तो?'
'लेकिन अभी दोपहर है... गली सूनी है... और वो तो बेहोश है...'
हवस जीत गई। संस्कार हार गए।
कामिनी उठी। उसके पैर कांप रहे थे। उसने धीरे से खिड़की का पर्दा हटाया और कांच का पल्ला खोला।
उसने खुद को दीवार की आड़ में रखते हुए नीचे झांका।
वो शराबी अभी भी वहीं पड़ा था।
ऊपर से देखने पर, वह नज़ारा और भी साफ था। उसका वह काला लंड उसकी जांघ पर एक अलग ही जीव जैसा लग रहा था। ऊपर के एंगल से उसकी मोटाई और भी ज्यादा लग रही थी।
कामिनी ने अपनी साड़ी के पल्लू को अपनी छाती पर भींच लिया। उसकी सांसें तेज़ हो गईं। उसे अपनी चूत से फिर से पानी बहता हुआ महसूस हुआ। वह इतनी गीली हो चुकी थी कि उसे लग रहा था साड़ी पर धब्बा पड़ जाएगा।
वह एकटक उसे देखती रही, अपनी कल्पनाओं में खो गई— 'अगर यह चीज़ मेरे अंदर जाए तो क्या होगा? क्या मैं फट जाऊँगी? या मुझे वो सुख मिलेगा जो आज तक नहीं मिला?'
तभी नीचे हलचल हुई।
शराबी ने नींद में करवट बदली। उसने अपना पैर मोड़ा और लुंगी उसके ऊपर गिर गई।
शो खत्म हो गया। वो काला अजूबा फिर से कपड़े के नीचे छुप गया।
कामिनी को एक अजीब सी निराशा हुई, जैसे किसी बच्चे से खिलौना छीन लिया गया हो।
उसने झटके से खिड़की बंद कर दी और पर्दा गिरा दिया।
कमरे में अब वह अकेली थी, अपनी अतृप्त प्यास के साथ।
उसका बदन सुलग रहा था। उसे अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उसे खुद को छूना था, अपनी आग को शांत करना था।
उसकी नज़र बिस्तर पर पड़े पर्स पर गई।
वीट (Veet).
उसे याद आया। पति का हुक्म था "साली चुत साफ कर लेना कल "
लेकिन अब यह सिर्फ़ पति का हुक्म नहीं रह गया था। कामिनी को खुद इच्छा होने लगी थी की वो अपनी खूबसूरती को बालरहित कर ले, खुल के सांस लेने दे.
उसने झपटकर पर्स से वो गुलाबी डिब्बा निकाला।
उसकी आँखों में एक पागलपन था।
उसने अपनी साड़ी को एक झटके मे उतार फेंका, और सिर्फ़ ब्लाउज-पेटीकोट में बाथरूम की तरफ चल दी।
उसका भरा हुआ मादक जिस्म बाथरूम की सफ़ेद रौशनी मे चमक रहा था.
आज बाथरूम में सिर्फ़ बाल साफ़ नहीं होने वाले थे, आज कामिनी अपनी मर्यादा की पहली परत भी उतारने वाली थी।
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Contd....

1 Comments
मैने अभी ये कथा पढी नहीं है... नाई की दुकान कहानी क्यु delete कर दी?? कृपया फिरसे पोस्ट करें
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