कामिनी खुद को काबू करने की भरपूर कोशिश कर रही थी, लेकिन बार-बार आलम का मोटा बड़ा भयानक लंड उसकी नजरों के सामने आ जाता, उसकी पड़ोसन हरमन कौर की सिस्कारिया उसके कानो मे गूंजने लगती, ये सिस्कारिया मजे के थी, उसका जहन उस से सवाल पूछ रहा था " तु कब ऐसे चिखी थी?, तुबे कब ऐसे सिस्कारिया भरी थी? कब तु अपनी चुत फाड़वाने के लिए उतावली हुई थी? "
जवाब था कभी नहीं, ऐसा कभी हुआ ही नहीं, जीवन के इतने साल निकल गए उसे ऐसा अहसास नहीं हुआ, ऐसे रोमांच का अनुभव नहीं हुआ.
बार-बार माँ के सामने वही दृश्य दौड़ जा रहा था, कैसे वो एक जवान लड़का एक शादीशुदा औरत को चीखने पर मजबूर कर दे रहा था,
लेकिन जब भी वो हरमन की चुदाई को याद करती उसके सामने आलम का मोटा लंड झूलने लगता,
कामिनी को एक वक़्त शर्म भी आ रही थी की वो क्या सोच रही है, वही दूसरी ओर वो करवट भी बदले जा रही थी, जाँघे आपस मे भींचे जा रही थी, उसे चुत के मुहाने कुछ गिलापन सा महसूस होने लगा.
माँ सब बातो से ध्यान हटा कर आंखे बंद करती की, तुरंत ही आंखे खोल देती, आलम का लंड, हरमन की चीखे उसे चैन नहीं लेने दे रही थी.
बेचैनी से करवट बदलते 10 मिनिट बीत चुके थे, आखिर मेरी माँ कामिनी बिस्तर से उठ खड़ी हुई, उसका जिस्म पसीना पसीना हो गया था, उसके कदम वापस से कमरे के बहार चल दिए,
उसके मन मे जिज्ञासा थी, क्या अभी भी ये गंदा खेल उसके घर मे चल रहा होगा?
क्या सिर्फ वो यही देखने जा रही थी या कुछ ओर देखने की चाहत ने उसे वापस आँगन मे पंहुचा दिया था, नाई की दुकान से अभी भी लाइट की रौशनी बहार आ रही थी,
कामिनी ने धड़कते दिल के साथ आंखे अंदर की ओर गड़ा दि, उसकी सांस रुकने को हुई.... गड़ब... गट.... से उसने थूक अपने सूखे गले के नीचे उतार लिया, आंखे चौड़ी हो गई, अंदर हरमन कौर पंजो के बल फर्श पर बैठी हुई थी, जाँघे फैली हुई थी, उसका मुँह आलम की जांघो के भींच आगे पीछे हो रहा था पच... पच... फच...हरमन बड़ी सिद्दत के साथ आलम का लंड चूस रही थी,
हाथो से पकड़ के मुँह मे अंदर तक ठूस उतार रही थी, . आलम उसके सर को पीछे से पकडे अपने लंड पर दबा रहा था "आअह्ह्ह..... इसससस.... क्या लंड चूसती है रे तु, तुझे देख के कोई कह सकता है तु इतना अच्छा लंड चूसती है, आअह्ह्ह... चट... चूस... पच.. पच" आलम सिसकर रहा था.

मेरी माँ कामिनी ये दृश्य देख भोचक्की रह गई... उसने आज से पहले ना ऐसा कुछ नहीं देखा था देखा छोडो उसने कभी अपनी शादीशुदा जिंदगी मर ऐसा कुछ करने का सोचा ही नहीं था,
माँ का जिस्म कांपने लगा, चुत मे चीटिया सी रेंगने लगी, ये अनोखा अनुभव था कामिनी के लिए, उसे खुद नहीं पता वो ये सब क्यों देख रही है, उसके स्तन कड़क क्यों हो गए है.
पूरा जिस्म ऐसे तपने लगा जैसे बुखार चढ़ गया हो, कामिनी का चेहरा लाल था एक दम लाल कहा नहीं जा सकता हवस, शर्म से या फिर गुस्से से.
माँ समझ नहीं पा रही थी की एक शादीशुदा औरत ऐसा कैसी कर सकती है? जबकि हरमन एक अच्छे घर की औरत है, उसका पति एक इज़्ज़तदार सरकारी नौकर है, सरदार है, दिखने में भी हट्टा कट्टा है, फिर इस कलमुही को ऐसी क्या आग लगी की इस हरामी, सूअर जैसे लड़के के साथ.... छी... छी.... " माँ ने फिर हरमन को धिक्कारा.
माँ अब और नहीं देख सकी इस दृश्य को, ेओ शायद गर्मी पसीने से बेहोश ही हो जाती, वापस अपने कमरे मे आ गई लेकिन अभी भी चैन नहीं मिला था, उसने जोर से आंखे बंद कर ली.
माँ की पूरी रात बेचैनी मे ही बीती.
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अगले दिन
आज माँ ने साड़ी पहनी हुई थी, माँ कभी कभी साड़ी भी पहन लिया करती थी, और घर के बाहर झाड़ू लगा रही थी, झुक कर झाड़ू लगाने की वजह से माँ के सुडोल बड़े स्तन बार बार ब्लाउज से बहार निकलने को आतुर हो रहे थर, जिसे माँ बार बार पल्लू से ढक लेती, मै घर के बहार ही कुर्सी लगाए न्यूज़ पेपर पढ़ रहा था, लेकिन नजर माँ पर ही थी,
माँ ने एक नजर आलम की दुकान की तरफ देखा, जोर से गाने चलने की आवाज़ आ रही थी, आज माँ ने उसकी दुकान के बहार झाड़ू नहीं लगाई,
"नमस्ते आंटी जी " सामने से आई आवाज़ सुन माँ ने सर ऊपर उठाया.
सामने हरमन कौर खड़ी थी " नमस्ते आंटी जी " माँ उसे देख के गुस्से से जल भून गई,
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि मुँह फैर लिया.
उसे देख माँ को कल रात का दृश्य याद आ गया, जब ये हरमन आलम का गन्दा लंड चूस रही थू, घोड़ी बन के चुदवा रही थी.
शायद हरमन को भी बहुत अजीब लगा, जो lady उस से हर रोज़ हसके बात करती थी, आज उसने मुँह फेर लिया ऐसी क्या बात हो गई?
तभी हरमन की आवाज सुन आलम दुकान से बाहर आ गया, बहार निकलते से ही उसकी नजर मेरी माँ की बड़ी गांड पर पड़ी, जो ठीक उसके सामने झुकी झाड़ू लगा थी थी, माँ की गांड वाकई मादक लग रही थी, साड़ी मे कसी हुई, हिल रही थी, एकदम सुडोल, गोल गांड थी माँ की.
लेकिन सामने हरमन खड़ी थी, आलम ज्यादा देर माँ की उभरती खूबसूरती को निहार ना सका,
ना जाने क्यों मुझे हुसैन नहीं आ रहा था आलम की हरकतो पर, जबकि मुझे तो उसे टोकना चाहिए था, लेकिन नहीं नेरे शरीर मे अजीब सी गुदगुदी हो रही थू, जिस नजर से आलम माँ की गांड को घूर रहा था.
मेरी नजर आलम पर ही थी वो हरामी सामने खड़ी हरमन की तरफ कुछ इशारा कर मुस्कुरा रहा था, हरमन भी मुस्कुरा के झेप गई,
आलम ने उसे शर्माता देख अपने लंड को मसल दिया, उसकी पैंट मे लंड का उभार साफ दिख रहा रहा.
माँ भी ये छीटाकसी अनदेखा नहीं कर सकी,
मेरी माँ कामिनी उन दोनों की करतूते देख रही थी
" देखो कितनी बेशर्म औरत है ये, सुबह सुबह ही नैन मटक्का करने लगी " माँ गुस्से से तमतमाने लगी और जोर जोर से झाड़ू लगाने लगी.
इस जोर आजमाइस मे माँ की गांड थारथरा रही थी,. जिस पर आलम की नजर बराबर टिकी हुई थी,
माँ की गांड को देख वो अपना लंड सहला रहा था, माँ के सामने तो हरमन माँ जिस्म सूखा हुआ था, हरमन अपनी भरपूर जवानी मे भी माँ के सामने पानी भरती सी नजर आती थी.
कहा मेरी माँ का जिस्म भरा, गद्दाराया हुआ, मोटे सुडोल स्तन, जो ब्लाउजर मे सामते ही नहीं थे, बड़ी सुडोल गांड जिसके दोनों पाट आपस मे रगड़ते ही रहते थे, उस पर गोरा रंग, चौड़े कंधे, सुन्दर चेहरा लाल होंठ.
वही हरमन पतली दुबली सवाली सी अवरेज किस्म की औरत थी.
आलम शायद यही तुलना मर रहा था, कभी माँ को देखता तो कभी सामने खड़ी हरमन को.
उधर हरमन घर में जा चुकी थी.. लेकिन आलम मेरी को घूरे जा रहा था, अपने लंड को सहला रहा था,
माँ ने एक नजर आलम को ओर देखा उसका हाथ पैंट के अगले हिस्से पर बने उभार को सहला रहा था..
"छी... बदतमीज़..." माँ बड़बड़ती गुस्से मे वहाँ से उठ के अंदर चली आई.
आज कामिनी ने फैसला कर लिया रहा, चाहे जैसे हो, पापा से लड़ना पड़े लेकिन इस हरामी आलम से दुकान खाली करवानी ही है,
घर के अंदर आ कर माँ घर के बाकि कामों मे लग गई, कोई 11 बजे होंगे की तभी बहार से किसी के अंदर आने की आहट हुई,
माँ ने मुँह उठा कर देखा आलम अंदर चला आ रहा था, माँ ने बुरा सा मुँह बना लिया, टॉयलेट करने जो आया था, माँ को तो पहले से ही पसंद नहीं था ये घर मे अंदर आये और बाथरूम का इस्तेमाल करे,
आलम माँ को देख मुस्कुराता बाथरूम की ओर बढ़ गय, उसने दरवाजा खोला और वही खड़ा हो गया, हद थी बदतमीज़ी की, माँ का गुस्सा सातवे असलम पर पहुंच गया.
"पप्पीईईस्स्स्स...... और मूतने लगा, पूरी टॉयलेट सीट पर उसका पेशाब फैलने लगा.
और जाते जाते पिच.. पिचक.... कर गुटके की पिचकारी बभी मार दि..... जाते जाते माँ को देख मुस्कुराते चला गया, बिना पानी डाले
माँ का चेहरा तो गुस्से से लाल हो चूका था, ऐसा बदतमीज़ इंसान उसने कभी नहीं देखा था.
जैसे ही आलम घर से बहार गया, माँ बाथरूम मे गई, वहाँ देख के आंख नाक सिकोड ली, बहुत गंदगी मचाई हुई थी आलम ने, पेशाब के छींटे टॉयलेट सीट पर तैर रहे थे, फर्श पर गुटके की pic थी, सफ़ेद टाइल्स पिली और लाल हो गई थी.
कामिनी जैसे ही अंदर दाखिल हुई, एक कैसेली पेशाब की मर्दाना गंध से उसका दिमाग़ हिल गया, अजीब सी गंध उसके नाक से होते हुए, सर पे चढ़ गई,
जैसे कोई नशा हुआ हो.
सिंफ्फ्फ्फफ्फ्फ़.... शनिफ्फग्ग.... ये महक सूंघने लायक नहीं थी, लेकिन बहुत तेज़ थी, कामिनी ने ना चाहते हुए भी एक सांस अंदर खिंच ली...
तेज़ मादक महक ने उसके जिस्म को अपने आगोश मे ले लिया, उसके जिस्म के रोंगटे खड़े हो गए.. शुद्ध मर्दाना गंध थी आलम के पेशाब मे.
कामिनी को अपनी नाभि के नीचे प्रेशर महसूस होने लगा, जैसे चुत से कुछ फुट पड़ेगा.
कामिनी ने जल्दी से अपनी साड़ी और पेटीकोट ऊपर उठाया,
और बैठ गई उसी टॉयलेट सीट पर जिस पर आलम का पेशाब गिरा हुआ था, या यूँ कहिये वो टॉयलेट सीट उसके पेशाब से सनी हुई थी.

"आआआआह्हः...... ईईस्स्स.... मेरी माँ के मुँह से एक कामुक मादक सिस्कारी निकल पड़ी, "ससससस..... फुर्ररररररररर......" उसकी चुत से पेशाब की धार फुट पड़ी.
माँ की गांड आलम मे पेशाब से भीग गई थी.
आलम और मेरी माँ कामिनी का पेशाब आपस मे मिल कर नया रंग बना रहा था.
माँ को ये क्या हुआ मेरे समझ के परे था, जैसे जैसे पेशाब बहार आता गया माँ का गुस्सा भी शांत होता चला गया, गुस्सा चुत के रास्ते बहता हुआ कामोड मे गिर रहा था.
मेरी माँ कामिनी घर ने कभी कच्छी नहीं पहनती थी, क्यूंकि मैंने कई पार नोटिस किया था माँ जब भी घर पर होती तो उसकी गांड घाघरे मे बहुत ज्यादा हिलती, ध्यान से देखने पर माँ की गांड माँ आकर प्रकार साफ महसूस किया जा सकता था, लेकिन जब माँ बहार जाती तो उनकी गांड कसी हुई दिखती, इतना नहीं थिरकती, साड़ी से कच्छी की लाइन भी दिखती थी,
वैसे भी मैंने कभी कभार ही माँ की कच्छी को तार पर सुखते देखा था,
खेर मेरी माँ कमोड पर बैठी मूत रही थी, उसके चेहरे पे एक अलग सुकून दिख रहा रहा,
वैसे भी मेरा मानना है की मर्दो के पेशाब की गंध औरतों को आकर्षित करती है, उन्हें मादक लगती है, इस गंध मे एक नशा होता है जो इस वक़्त मेरी माँ के जहन मे चढ़ गया था. शायद माँ आलम के पेशाब की महक सूंघ कर उत्तेजित महसूस कर रही थी.
"माँ... माँ.... कहा हो माँ?" आलम कर जाने के बाद मे बहार आंगन मे आया.
"फलश... सससससस...."बाथरूम से फ़्लैश की आवाज़ आई, माँ कामोड से तुरंत उठी और बहार को आ गई.
माँ की गांड और जांघो पर अभी भी आलम का गन्दा पेशाब लगा हुआ था.
"कक्क.... क्या हुआ...." माँ सकपका गई थी जैसे कोई चोरी कर रही हो.
"भूख लगी थी?" मैंने माँ के सफ़ेद पड़े चेहरे को हैरानी से देखा, बाथरूम मे जाने से पहले माँ का चेहरा गुस्से मे लाल था, लेकिन अब सकपका गई थी.
"चल अंदर आती हूँ अभी." माँ ने वाशबेसिन मे हाथ धोये और अंदर आ गई.
मै डाइनिंग टेबल पर बैठा खाना खा रहा था लेकिन मेरा दिमाग़ भन्ना रहा था, "माँ ने कुछ बोला क्यों नहीं? गुस्सा शांत क्यों हो गया?"
मेरे दिमाग़ मे माँ को ले कर सवाल उठ रहे थे.
क्यूंकि मुझे पता था आलम की नजरें ठीक नहीं है, गन्दा लड़का है वो..
" कहीं पापा ने उसे दुकान रेंट पर देकर कोई गलती तो नहीं कर दी? मुझे ये बिल्कुल भी पसंद नहीं था कि कोई मेरी घर की औरतों को ऐसे देखे, मुझे क्या किसी को भी ये बात पसंद नहीं आती " मै अपने सवालों मे डूबा खाना खाता रहा.
दिन ऐसे ही गुजर गया.
रात के 11 बज गए थे
माँ पापा अपने कमरे मे सोने जा चुके थे, मै भी ऊपर अपने कमरे मे पढ़ाई ख़त्म मर सोने की तैयारी मे ही था, की पानी की प्यास लगी तो नीचे फ्रिज से पानी की बोत्तल लेने जा ही रहा था की... मुझे माँ आँगन से बाथरूम की ओर जाती दिखी.
मुझे लगा शायद टॉयलेट जा रही होगी, मै सीढ़ी से थोड़ा नीचे को आया, माँ टॉयलेट ना जा कर उस दिवार के पास आ कर रुक गई जिसके आगे आलम की दुकान थी, माँ इधर उधर कुछ झाँकने लगी. अंदर अंधेरा था, बहार कोई रौशनी नहीं आ रही थी.
माँ का चेहरा कुछ उतर सा गया, ना जाने क्या देखना चाहती थी?. या फिर माँ ने चैन की सांस ली की " चलो ऐसा नहीं करता ये लड़का, मेरे गुस्से से दर गया शायद "
ऐसे ही माँ रोज़ 11, 12 बजे उठ के टॉयलेट जाती तो आलम की दुकान मे झाँक के जरूर देखती.
लेकिन कभी कुछ नहीं मिला, माँ हैरान थी ये सुधर गया या कोई और बात है.
क्या वाकई माँ से दर गया था आलम?
या फिर उसकी कोई योजना है?
डरने वालो मे तो नहीं लगता ये हरामी?
बने रहिये.....
कहानी जारी है...
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